यहां होती है बिना सिर वाली मूर्तियों की पूजा-अर्चना

-900 साल पहले बने मंदिरों को ओरंगजेब ने तुड़वाया
सनातन धर्म में मंदिर या किसी घर में प्राण प्रतिष्ठित प्रतिमा के किसी भी तरह से खंडित होने पर उस प्रतिमा को पूजन के अयोग्य मान लिया जाता है। या यूं कहें कि खंडित मूर्ति का पूजन करना अशकुन माना जाता है। पंरतु भारत में एक एेसा स्थान भी है जहां पर बिना सिर वाली माता की मूर्तियों की पूजा अर्चना की जाती है। गौर हो खंडित प्रतिमा में केवल शिव लिंग के पूजन को ही उत्तम माना गया है। आईए आज आपको बिना सिर वाली मूर्तियों के पूजन के बारे जानकारी देते हैं। आखिर यह मंदिर कहां पर स्थित है।

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क्यों नहीं होता है खंडित प्रतिमाओं का पूजन
शास्त्रों अनुसार किसी भी आराध्य देवी देवता की प्रतिमा पूर्ण होने पर ही पूजा करने का विधान है। जब हम कहीं भी मूर्तियों को स्थापित कर उसका विधि विधान से पूजन करते हैं, तो उन प्रतिमाओं में उस देवी देवता के प्राण प्रतिष्ठित हो जाते हैं। वहीं प्रतिमा के खंडित होने से पूजा निष्फल हो जाती है। खंडित प्रतिमा की पूजा करते समय यदि मूर्ति को देखते हैं, तो हमारा ध्यान प्रतिमा के खंडित भाग पर केंद्रित हो जाता है। जिस वजह से हमारी पूजा बाधित हो जाती है। पूजा सही ढंग से न होने से हम अराध्य का सही ढंग से आशीर्वाद भी हासिल नहीं कर पाते हैं। खंडित मूर्ति को घर में या मंदिर में रखना भी अशुभ माना जाता है। इन प्रतिमाओं को जल प्रवाह करना सबसे उत्तम मना जाता है।

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कहां होती है बिना सिर वाली मूर्तियों की पूजा
मुगल शासक ओरंगजेब ने भारत वर्ष में सभी मंदिरों को ध्वस्त करे के आदेश दिए थे। तब से इन खंडित मूर्तियों को संरक्षित किया हुआ है। साथ ही इनकी पूजा अर्चना भी की जा रही है। यह अष्टभुजा धाम नामक मंदिर उत्तरप्रदेश की राजधानी से 170 किमी दूर प्रतापगढ़ के गोंडा गांव में है। इस अष्टभुजा धाम मंदिर की मूर्तियों के सिर औरंगजेब ने कटवा दिए थे। बिना सिर वाली खंडित ये मूर्तियां आज भी उसी स्थिति में इस मंदिर में संरक्षित हैं।

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मंदिर को बचाने की कोशिश रही थी असफल
जानकारी अनुसार मुगल शासक औरंगजेब ने 1699 ई. में देश भर के कई हिस्सों में हिंदू मंदिरों को तोड़ने का आदेश दिए थए। इस आदेश के मिलने के बाद उस समय इस इलाके के लोगों व पुजारी ने इस मंदिर को बचाने की असफल कोशिश की। परंतु वह इसमें सफल नहीं हो सके। पुजारी ने मंदिर के मुख्य द्वार को मस्जिद के आकार में बनवा दिया था। ताकि मुगल सैनिकों को इस मंदिर के मस्जिद होने का भ्रम मिले। सैनिक इस गांव के इस मंदिर को मस्जिद ही मान कर सामने से निकल गए, लेकिन एक सेनापति की नजर मंदिर में टंगी घंटी पर पड़ गई। फिर सेनापति ने अपने सैनिकों को मंदिर के अंदर जाने के लिए कहा। मंदिर में प्राण-प्रतिष्ठित सभी मूर्तियों के सिर काट दिए गए। आज भी इस मंदिर की मूर्तियां वैसी ही हाल में देखने को मिलती हैं। इतना ही नहीं मंदिर का मुख्य द्वार आज भी मस्जिद का ही भ्रम पैदा करता है।

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11वीं सदी में बनाया गया था यह मंदिर
मंदिर की दीवारों, नक्काशी और विभिन्न प्रकार की आकृतियों का अवलोकन करने के बाद इतिहासकारों और पुरातत्वविदों का मानना है कि इस मंदिर का निर्माण 11वीं सदी में हुआ था। इस मंदिर का निर्माण सोमवंशी क्षत्रिय घराने के राजा की ओर से करवाया गया माना जाता है। दिर के गेट पर बनीं आकृतियां मध्य प्रदेश के प्रसिद्ध खजुराहो मंदिर से काफी मिलती-जुलती हैं।

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मंदिर में प्राण-प्रतिष्ठित है अष्ट भुजा प्रतिमा
इस मंदिर में आठ हाथों वाली अष्टभुजा देवी की मूर्ति प्राण प्रतिष्ठित है। गांव वालों का मानना है कि पहले इस मंदिर में अष्टभुजा देवी की प्रतिमा अष्टधातु से निर्मित है। 15 साल पहले यह प्रतिमा चोरी हो गई थी। इसके बाद सामूहिक सहयोग से ग्रामीणों ने यहां अष्टभुजा देवी की पत्थर की मूर्ति स्थापित करवा दी थी।

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मंदिर के गेट पर लिखी लिपी को नहीं समझ पाए जानकार
इस प्राचीन मंदिर के मुख्य गेट एक विशेष लिपि अंकित है। यह कौन-सी भाषा है, इसे समझने में पुरातत्वविद, इतिहासकार व भाषाओं के माहिर फेल हो चुके हैं। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि यह ब्राह्मी लिपि हैं। परंतु कुछ लोगो इस लिपि को इससे भी पुरानी भाषा मान रहे हैं। लंबे समय से इस लिपि को समझने की सभी कोशिशें असफल हो चुकी हैं।

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प्रदीप शाही

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