सोवियत संघ, क्यूबा, वेनेजुएला के बाद श्री लंका हुआ बर्बाद, अब भारत की बारी !

-दो रूपये किलो आटा 20 रूपये किलो दाल के बाद फ्री बिजली-पानी पर ना पढ़ाई ना रोजगार
-मुफतखोरी बना रही वोटर को भिखारी, कहां गए विकास के वादे
-सड़क पर चलोगे तो टोल लगेगा, स्कूल जाओगे तो डोनेशन लगेगा

इंसान को एक बार निठल्ले बैठ कर खाने की लत लग जाए तो यह ता उम्र उसका पीछा नहीं छोड़ती, ठीक इसी तरह अगर मुफत की रोटियां तोड़ने आदत पड़ जाए तो वो भी कब्र तक साथ जाती है। भारत में भी मुफतखोरी अब कम से कम यहां के वोटर को भिखारी बनाने पर तुली है। कश्मीर में हमने 77 साल पहले धारा 370 लगा कर हर चीज या तो फ्री दी या फिर औने-पौने दामों पर नतीजा हुआ कि ये लोग पहले निठल्ले हुए फिर निकम्मे और बाद में बागी। काम तो कोई था नहीं, सो जिसके हाथ में बंदूक आई उसने बंदूक उठाई, बाकियों ने पत्थर जो कुछ ना कर सके वो झंडा लिए गला फाड़ने लगे।

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ठीक यही हालात 80 के दशक में सोवियत संघ ने अपनी जनता के लिए बनाए, दुनिया की सबसे बेहतरीन रिसर्च करने वाले यहां के वैज्ञानिकों की खोज को सीमित कर दिया गया। फार्मूला दिया गया कि जितने उत्पादन की देश को जरूरत है सिर्फ उतना ही किया, विश्व के बाजारों में अपनी चीज बेच कर हम उपभोक्तावाद और पूंजीवाद को बढ़ावा नहीं देंगे। यानि अगर सोवियत संघ के स्कूलों में एक साल में पांच लाख विधार्थी पढ़ने आते हैं, तो एक साल में इससे ज्यादा ना तो स्कूली बस्ते बनाए जाएं और ना ही कापी किताब और पैन, पेंसिल तैयार किए जाएं और ये सब कुछ कामरेड बच्चों को फ्री में दिया जाए। हथियारों के अलावा हर अच्छी बुरी चीज पर इसे लागू किया गया। स्पष्ट है कि ऐसी अर्थव्यस्था कितने दिन चल पाती!

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इसके बाद बारी आई क्यूबा की, मुल्क चाहे छोटा ही पर अपने शानदार सिगार और रम के लिए जाना जाता है। यूएसएसआर से मिले अनुदान के दम पर अमेरिका को भी आंख दिखाता रहा पर एक दिन टूट गया। कुछ ऐसा ही हाल कच्चे तेल का भंडार कहे जाने वाले वेनेजुएला का हुआ। जहां पर समाजवादियों या वामपंथियों ने सत्ता में आने के लिए देश वासियों के लिए हर चीज फ्री कर दी। परिणामस्वरूप लोगों ने काम करना ही बंद कर दिया। शिक्षा, सेहत सहित मूलभूत सुविधाओं की बात तो छोड़िये, रोटी, पानी भी निःशुल्क कर दिया गया। एक-दो दशक कामरेड सत्ता में तो रहे, पर अब आलम यह है कि वेनेजुएला की मुद्रा के दाम इतने गिरे कि मुट्ठी में चीनी लाने के लिए थैले में पैसे ले जाने पड़ते हैं।

पेट में रहता है भारीपन तो करें…
हाल के दिनों में सुर्खियों में आया श्री लंका लगभग बर्बाद हो चुका है। कर्ज ना चुकाने की स्थिति में हबंनतोता जैसा बड़ा बंदरगाह चीन के पास 99 सालों की लीज पर जा चुका है। पैटरोल 254 रूपये लीटर और सूखा दूध 1700 रूपये किलो गेस सिलेंडर तीन हजार के पार है, ये दाम श्री लंका वाले रूपये में है। बिजली है नहीं, फैक्टरियां बंद पड़ी हैं। भारत से चावल, डीजल, गैस, दूध की गुहार लगाई जा रही है।

यह ड्राई फ्रूट ज्यादा खाना फायदे की जगह कर सकता है नुकसान …
जबकि दो साल पहले तक श्री लंका की विकास दर, यानि ग्रोथ, डबल डिजीट में यानि दहाई में रहा करती थी। सबसे पहला काम यहां के सत्तारूढ़ राजपक्षे परिवार ने आमदनी कर की सीमा को तीन लाख से बढ़ाकर सीधे 30 लाख रूपये कर दिया। ढ़ाई करोड़ की आबादी, बेहतरीन चाय काफी के बागानों वाले इस मुल्क में, जहां निर्यात में विदेशी मुद्रा जमकर आती थी, वहीं लाखों टूरिस्ट हर साल इस देश में सिर्फ पैसा खर्च करने आता था। फिर भी ऐसा साधन संपन्न देश करोना की एक मार तक ना झेल सका। आज सारा देश सड़क पर है और सरकार दिवालिया हो चुकी है।

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दिलचस्प है कि भारत में भी यह बिमारी दक्षिण से ही आई फिर पश्चिमी बंगाल होते हुए पसरती गई। दो रूपये चावल से शुरू हुआ यह सिलसिला दो रूपये किलो आटा 20 रूपये किलो दाल पर आया। कहीं इसके साथ साड़ी बंटी तो कहीं टीवी, अब बात साईकिल से बढ़कर स्कूटी पर आ गई है। मोइाईल बंट चुके हैं, टेबलेट और लैपटाप के वादे जारी हैं। किसानों को फ्री बिजली-पानी दिया गया है, दलितों के बाद अब बिजली के नाम पर गरीबों को लपेटा जा रहा है। निशुल्क शिक्षा-सेहत सुविधा की बात हो तो समझ में आता है।

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आप सड़क पर चलोगे तो टोल टैक्स लगेगा, स्कूल जाओगे तो डोनेशन लगेगा। हर राजनीतिक दल, जिसमें मोदी भी शामिल है, विकास की बात करता जरूर है पर स्वयं के विकास से आगे नहीं बढ़ पाता। रोजगार भी अपनों तक ही सीमित रहा है। यहां नोकरी की बात ना की जाए तो बेहतर है।

 

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