इस शमशान घाट में है मुर्दे से भी टैक्स वसूलने की परंपरा…

-तीन हजार साल से निरंतर जारी है यह परंपरा
क्या आपने सुना है कि शमशान घाट में मुर्दे से भी टैक्स वसूला जाता है। यकीन नहीं हुआ न आपको। आईए, आपको बताएं कि भारत में एक एेसा स्थान है। जहां पर बीते तीन हजार साल से मुर्दे से टैक्स वसूलने की परंपरा जारी है। इतना ही नहीं यह शमशान घाट विश्व का इकलौता शमशान घाट है जहां पर चिता की आग कभी भी ठंडी नहीं होती है। इस घाट के देश विदेश से लोग दर्शन भी करने आते है। इस घाट पहुंच कर यह एहसास होता है कि जीवन का अंतिम सत्य यही है।

कहां है यह शमशान घाट ?
इस शमशान घाट का नाम मणिकर्णिका शमशान घाट है। जो की काशी में स्थित है। यह शमशान घाट भारत का इकलौता श्मशान घाट हैं, जहां पर मुर्दे से भी टैक्स वसूलने की परंपरा है। यह परंपरा बीते तीन हजार साल से अनवरत जारी है।कहा जाता है कि माता पार्वती जी का कर्ण फूल यहां एक कुंड में गिर गया थ। जिसे ढूढने का काम भगवान शंकर ने किया। इस कारण इस स्थान का नाम मणिकर्णिका पड़ गया। एक दूसरी किदवंती अनुसार भगवान शंकर जी द्वारा माता पार्वती जी के पार्थिव शरीर का अग्नि संस्कार यहीं पर किया गया था। जिस कारण इसे महाशमशान भी कहा जाता है।

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यहां चिता पर लेटने वाले को मिलता है सीधे मोक्ष
काशी के मणिकर्णिका श्मशान घाट के बारे एक मान्यता प्रचलित है कि यहां चिता पर लेटने वाले को सीधे मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस शमशान घाट की एक खास बात यह भी है कि इस श्मशान घाट में चिता की आग कभी ठंडी नहीं पड़ती है। इस शमशान घाट में लाशों का आना और चिताओं का जलना कभी नहीं थमता है। जानकारी अनुसार इस शमशान घाट में एक दिन में लगभग 300 शवों का अंतिम संस्कार किया जाता है।

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इन विशेषताओं के कारण भी जाना जाता है यह शमशान घाट
मणिकर्णिका घाट अपनी कई अन्य विशेषताओं के कारण जाना जाता है। जो भारत के किसी अन्य शमशान घाट में नहीं पाई जाती हैं। मणिकर्णिका घाट पर जलती चिताओं के बीच चिता भस्म से होली खेलने की परंपरा है। वहीं चैत्र नवरात्री अष्टमी को जलती चिताओं के मध्य मोक्ष पाने की की उम्मीद में सेक्स वर्कर सारी रात नृत्य करती हैं।

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शमशान घाट का रखरखाव डोम जातिे के पास
मणिकर्णिका घाट का रख रखाव डोम जाति के हाथों में है। प्राचीन समय में डोम जाति के पास रोजगार का कोई अन्य साधन न होने के कारण अंतिम संस्कार के समय धन को दान देने की रीत शुरु हुई। प्राचीन काल में डोम जाति के लोग दाह संस्कार करने की एवज में मुंह मांगी कीमत नहीं मांगते थे। माना जाता है कि टैक्स वसूलने की रीत राजा हरीशचंद्र के काल में शुरु हुई। राजा हरीशचंद्र ने तब एक वचन को पूर्ण करने के लिए अपना राजपाठ छोड़ कर डोम परिवार के पूर्वज कल्लू डोम की नौकरी की थी। इसी बीच राजा के बेटे की मौत हो गई। और बेटे के दाह संस्कार के लिये उन्हें मजबूरन कल्लू डोम की इजाजत मांगनी पड़ी। चूंकि बिना दान दिए अंतिम संस्कार की इजाज़त नहीं थी। तब राजा हरीशचंद्र को मजबूरन अपनी पत्नी की साड़ी का एक टुकड़ा बतौर दक्षिणा कल्लू डोम को देना पड़ा। था। उस समय से अंतिम संस्कार के बदले में टैक्स मांगने की प्रथा मजबूत हो गई। यह प्रथा आज भी मणिकर्णिका घाट पर जारी है।

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प्रदीप शाही

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