आश्चर्य! इस मूर्ति के पीछे लिखी लिपि, आज भी विद्वानों के लिए बनी हुई है पहेली 

धर्मेन्द्र संधू

भारत में कुछ ऐसे रहस्यमयी स्थान हैं जहां के रहस्यों को सुलझाने में विज्ञान भी सफल नहीं हो पाया। आज हम आपको एक ऐसे ही रहस्यमयी मंदिर के बारे में बताएंगे जिसके रहस्य को सुलझाने में वैज्ञानिक व विद्वान भी असफल हुए हैं। इस मंदिर में स्थापित देवी की मूर्ति के पीछे एक अजीब लिपि में कुछ लिखा है जिसे आज तक कोई नहीं पढ़ पाया। यह मूर्ति एक हजार वर्ष के करीब पुरानी मानी जाती है।

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देवी उग्रतारा का मंदिर

देवी उग्रतारा का रहस्यमयी मंदिर रांची के नज़दीक स्थित है। रांची के चंदवा के नगर नामक स्थान स्थित यह मंदिर 1000 वर्ष पुराना माना जाता है। इस मंदिर के निर्माण के बारे में कहा जाता है कि इस प्राचीन मंदिर का निर्माण टोरी रियासत के शासक पीतांबर नाथ शाही द्वारा करवाया गया था और बाद में रानी अहिल्याबाई ने इस मंदिर का दोबारा निर्माण करवाया था। मंदिर में चतुर्भुजी देवी की मूर्ति स्थापित है। कहा जाता है कि रानी अहिल्याबाई द्वारा इस क्षेत्र में सभी को पूजा करने का समान अधिकार दिलवाने के लिए मंदिर का निर्माण करवाया गया था। इससे पहले इस इलाके में सभी को पूजा करने का अधिकार नहीं था। यह कार्य उन्होंने अपनी बंगाल यात्रा के दौरान किया था।

नहीं पढ़ पाया कोई मूर्ति के पीछे लिखी लिपि

मंदिर में स्थापित मूर्ति के पीछे लिखी लिपि को आज तक कोई नहीं पढ़ पाया। विद्वानों का मानना है कि यह लिपि भारतीय लिपियों से अलग है। इस मूर्ति के पीछे क्या लिखा है कोई नहीं समझ पाया। यह लिपि आज भी रहस्य बनी हुई है।

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मंदिर में स्थापित मूर्ति से जुड़ी कथा

मंदिर में स्थापित मूर्ति के बारे में कहा जाता है कि टोरी के शासक पीतांबर नाथ शाही को यह मूर्ति एक तालाब से मिली थी। एक बार शिकार करते हुए पीतांबर नाथ शाही को प्यास लगी तो वह मनकेरी गांव के पास स्थित जोड़ा तालाब में पानी पीने लगे। उसी दौरान एक चमत्कार हुआ। उस तालाब में उन्हें दो मूर्तियां दिखाई दी थी। इनमें एक मूर्ति मां लक्ष्मी और दूसरी मां उग्रतारा की थी। कथा के अनुसार इस घटना से कुछ दिन पहले यही मूर्तियां उन्होंने सपने में भी देखी थी। इसके बाद उन्होंने इन मूर्तियों को स्थापित करने के लिए एक मंदिर का निर्माण करवाया। वह जोड़ा तालाब आज भी मौजूद है।

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विभिन्न जाति के लोगों को सौंपा जाता है मंदिर का कार्य

इस स्थान पर नाथ संप्रदाय के गिरि उपाधि धारी लोग रहते हैं। यह मंदिर किसी विशेष वंश, कुल, या संप्रदाय से मुक्त है। इस मंदिर में पहले पुरोहित स्व. पंचानन मिश्र की नियुक्ति स्वयं राजा ने की थी। पुरोहित मिश्र की पीढ़ी के लोग ही आज भी पूजा अर्चना करने का कार्य करते हैं। इसके अलावा मुसलमान जाति द्वारा भैंसे की बलि दी जाती है। पूजा के लिए बेल-पत्र व मछली लाना और नगाड़ा बजाने का कार्य घासी गंझू जाति से संबंधित लोग करते हैं।

देवी उग्रतारा से जुड़ी जानकारी

देवी उग्रतारा का वर्ण नीला व वाहन गीदड़ है और स्वभाव उग्र है। समुद्र मंथन के समय निकले विष को भगवान शिव ने पी लिया था। उस विष से पैदा हुई पीड़ा को दूर करने के लिए आदिशक्ति देवी ही देवी तारा के स्वरूप में प्रकट हुई थी और भगवान शिव को अमृतमय स्तन पान कराया था। जिससे उस विष का प्रभाव घटा था। देवी तारा के मुख्य रूप से तीन स्वरूप विख्यात हैं-उग्र तारा, नील सरस्वती और एक-जटा। इसके अलावा भी देवी के आठ रूप माने जाते हैं जिनमें तारा, उग्र तारा, महोग्र तारा, वज्र तारा, नील तारा, सरस्वती, कामेश्वरी, भद्र काली व चामुंडा हैं। इन नामों के समूह को अष्ट तारा कहा जाता है। देवी उग्रतारा दस महाविद्याओं में भी शामिल है। तारापीठ पश्चिम बंगाल, सासाराम बिहार व सुघंधा बांग्लादेश देवी के तीन प्रमुख स्थान माने जाते हैं।

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श्रद्धा व उत्साह के साथ मनाया जाता है नवरात्रि उत्सव

प्राचीकाल से ही इस स्थान पर नवरात्रि उत्सव श्रद्धा व उत्साह के साथ मनाया जाता है। इस उत्सव के दौरान बकरे, मछली व भैंसे की बलि देने की परंपरा है। दशमी के दिन पूजा समाप्त होने पर मां भगवती को पान का पत्ता चढ़ाया जाता है। पत्ता गिरने पर ही पूजा को सफल माना जाता है। पान के पत्ते के गिरने को विसर्जन के लिए माता का आदेश भी माना जाता है। भक्त दूर-दूर से देवी का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए आते हैं। इस दौरान किए गए संकल्प के अनुसार भक्तों द्वारा लाए गए पांच या ग्यारह फूलों को पुजारी वेदी पर चढ़ाता है। मान्यता है कि यह फूल ही सफलता या असफलता की सूचना देते हैं। अगर फूल नीचे गिर जाए तो इसे असफलता का संकेत माना जाता है।

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