मुस्लिम देश में स्थापित प्राचीन दुर्गा मंदिर को बनाया राष्ट्रीय स्मारक

-तीन शताब्दी प्राचीन देवी मंदिर में जल रही है अखंड ज्योति

प्रदीप शाही

विश्व में सनातन धर्म सबसे पुरातन माना गया है। भारत ही नहीं विश्व के अन्य देशों में जमीन की खुदाई के दौरान मंदिरों व देवी-देवताओं की प्रतिमाओं का मिलना उक्त कथन को प्रमाणित करता है। आज हम आपको एक मुस्लिम देश की जानकारी देंगे। जहां पर तीन शताब्दी प्राचीन दुर्गा माता का मंदिर स्थापित है। इस देवी मां के मंदिर में ज्वाला जी मंदिर की तरह ही अखंड ज्योति जल रही है। सबसे खास बात यह है कि इस मंदिर को उस मुस्लिम देश ने राष्ट्रीय स्मारक का दर्जा भी प्रदान किया हुआ है। आईए, इस रहस्य के पर्दा उठाते हैं कि यह कौन सा देश है। जहां पर यह देवी का मंदिर स्थापित है।

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मुस्लिम देश अजरबैजान में है देवी मां का प्राचीन मंदिर

पूर्वी यूरोप और एशिया के मध्य में मुस्लिम देश अजरवैजान है। अजरबैजान के सुराखानी इलाके में तीन शताब्दी पुराना मां दुर्गा का एक प्राचीन मंदिर है। इस मंदिर में सैंकडों सालों से माता की अखंड ज्योति जल रही है। मंदिर के प्रांगण में जल रही पावन ज्योति के कारण इस मंदिर को इस क्षेत्र में टेंपल आफ फायर के नाम से भी पुकारा जाता है।

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मंदिर में जल रही अनवरत ज्योति

मां दुर्गा के इस प्राचीन मंदिर के चारों तरफ पत्थरों से बनी गुफानुमा दीवार है। इन बाहरी दीवारों के साथ कई कमरे बने हुए हैं। शोधक्रताओं अनुसार प्राचीन समय में इन कमरों में मंदिर में पूजा करने वाले उपासक रहा करते थे। मंदिर मे एक पंचभुजा अकार का अहाता है। मंदिर के गुंबद पर एक त्रिशूल लगा हुआ है। जबकि मंदिर के मध्य में अनवरत माता की अखंड ज्योति प्रज्वलित हो रही है। अखंड ज्योति सात छेदों में से बाहर निकलती है। यह ज्योति धरती की भीतर से ही निकल रही है। मंदिर के बाहर के हिस्से में भी एक अग्निकुंड है।

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ज्वाला देवी जी मंदिर का होता है आभास 

अजरबैजान स्थित इस माता के मंदिर में जल रही ज्योति को देख कर हिमाचल प्रदेश में कांगड़ा से 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित ज्वाला देवी जी के मंदिर का आभास होता है। ज्वालामुखी मंदिर को जोतां वाली माता का मंदिर भी कहा जाता है। पुराणों में वर्णित है कि इस स्थान पर  देवी सती की जीभ कट कर गिरी थी। यह मंदिर माता का इसलिए अनोखा है, क्योंकि यहां पर  किसी भी देवी देवता की मूर्ति की पूजा नहीं होती है। यहां पर धरती के गर्भ से निकल रही नौ ज्वालाओं की पूजा होती है। कहा जाता है कि माता की इस ज्वाला को बुझाने के लिए सम्राट अकबर ने भरसक प्रयास किए। परंतु यह बुझ नहीं पाई थी।

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अजरबैजान स्थित माता मंदिर का इतिहास

कहा जाता है कि सैंकड़ों साल पहले जब व्यापारी इस रास्ते से गुजरते थे। तब इन व्यापारियों ने इस मंदिर का निर्माण कराया होगा। मंदिर में लगे शिलालेखों अनुसार इतिहासकारों का मानना है कि माता के  इस मंदिर का निर्माण बुद्धदेव ने करवाया था। बुद्धदेव हरियाणा में कुरुक्षेत्र के पास माजदा गांव का रहने वाला था। पास है।  मंदिर में स्थापित एक अन्य शिलालेख मुताबिक बुद्धदेव के अलावा उत्तमराज और शोभराज ने भी मंदिर के निर्माण में अपना योगदान दिया था।  इस रास्ते से होकर गुजरने वाले सभी व्यापारी माता के इस मंदिर में अपना मत्था जरूर टेकते थे। जबकि मंदिर के पास बने कमरों में आराम करते थे। बताया जाता है कि यहां पर वर्ष 1860 तक पुजारी प्रतिदिन विधि-विधान से पूजा किया करते थे। इसके बाद यहां पूजा करने की कोई जानकारी नहीं है। मंदिर की वास्तुकला बेहद दर्शनीय है। मंदिर की कई दिवारों पर गुरमुखी के कुछ लेख भी अंकित है। एक शिलालेख पर तो संवत 1783 का उल्लेख भी है। दीवारों में जड़े एक शिलालेख की पहली पंक्ति में श्री गणेशाय नमः लिखा हुआ है।

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मंदिर में ईरान के पारसी भी करते थे पूजा

ईरान के पारसी लोग माता के इस मंदिर में पूजा करते थे। इसी कारण यहां पर इसे आतेशगाह भी कहा जाता हैं। पारसी लोग पहले इसे पारसी मंदिर मानते थे। मंदिर के गुंबद पर लगे त्रिशुल होने के कारण पारसी विद्वानों ने इसे हिंदू मंदिर ही माना।

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अजरबैजान सरकार ने घोषित किया राष्ट्रीय स्मारक

अजरबैजान की सरकार ने वर्ष 1975  में इस मंदिर को एक संग्राहलय बना दिया था। परंतु वर्ष 2007 में वहां के राष्ट्रपति के आदेश के बाद इसे एक राष्ट्रीय एतिहासिक आरक्षित क्षेत्र घोषित कर दिया गया था।

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