भगवान गणेश को भूल कर भी न लगाएं इस का भोग, वरना हो जाएंगे नाराज…

-तुलसी को भगवान गणेश ने क्यों दिया था श्राप ?
तुलसी एक एेसा पौधा है, जिसका पूजन किया जाता है। तुलसी को भगवान हरि विष्णु जी के जीवंत रुप शालिग्राम की अर्धांगिनी का भी दर्जा प्राप्त है। तुलसी को विष्णु प्रिया भी कहा जाता है। भगवान विष्णु की कोई भी पूजा इसके बिना अधूरी मानी जाती है। परंतु वहीं दूसरी तरफ तुलसी का भगवान श्री गणेश के पूजन में कोई भी स्थान नहीं है। यदि इसका भोग लगा दिया जाए, तो भगवान श्री गणेश नाराज हो जाते हैं। आखिर एेसा क्या हुआ कि भगवान श्री गणेश ने तुलसी को एेसा श्राप दे दिया।

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तुलसी, श्री गणेश से करना चाहती थी विवाह…
देवों के देव महादेव के पुत्र सिद्धिविनायक श्री गणेश सदा ब्रह्मचारी रहना चाहते थे, बावजूद इसके उन्हें दो विवाह करने पड़े। पौराणिक कथा अनुसार एक बार श्री गणेश गंगा तट पर तप कर रहे थे। वहीं तुलसी विवाह की इच्छा लेकर तीर्थ यात्रा पर निकली हुई थी। भ्रमण के दौरान वह गंगा तट पर पहुंचीं। वहां पर तपस्या में लीन श्री गणेश को देखकर तुलसी श्री गणेश पर आसक्त हो गईं। तुलसी ने श्री गणेश से विवाह करने की इच्छा की। तो इससे गणेश जी की तपस्या भंग हो गई। तब भगवान श्री गणेश ने तुलसी द्वारा तप भंग करने को अशुभ बताया। वहीं तुलसी ने भगवान गणेश के सामने अपने विवाह की मंशा बताई। तो उन्होंने स्वयं को सदा ब्रह्मचारी बताकर तुलसी के विवाह प्रस्ताव को ठुकरा दिया।

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भगवान श्री गणेश की ओऱ से विवाह के प्रस्ताव को ठुकराने से आहत हुई तुलसी ने आवेश में आकर भगवान श्री गणेश जी को श्राप दे दिया कि उन्हें दो विवाह करने पड़ेंगे। गौर हो तुलसी के श्राप के चलते ही भगवान श्री गणेश जी ने ऋद्धि और सिद्धि दो बहनों से विवाह किया। इस घटना के फलित होने पर भगवान श्री गणेश जी ने तुलसी को श्राप दे दिया कि तुम्हारा विवाह एक असुर से होगा। एक राक्षस की पत्नी होने के मिले श्राप से आहत हो कर तुलसी ने श्री गणेश जी से माफी मांगी। तब विध्नहर्ता गणेश ने तुलसी से कहा कि असुर से विवाह के बाद अगले जन्म तुम एक पौधे का रूप धारण करोगी। भगवान विष्णु और श्रीकृष्ण की प्रिय होने के साथ ही कलयुग में तुम लोगों को मोक्ष प्रदान करोगी, लेकिन मेरी पूजा में तुम्हारा प्रयोग नही हो सकेगा। इसी श्राप के कारण ही गणेश जी के पूजन में तुलसी चढ़ाना वर्जित माना जाता है। पद्मपुराण आचाररत्न में वर्णित है कि न तुलस्या गणाधिपम अर्थात् तुलसी से गणेश जी की पूजा कभी न करें। यदि भगवान श्री गणेश जी के पूजन दौरान तुलसी के पत्ता चढ़ा दिया जाता है, तो भगवान गणेश नाराज हो जाते हैं।

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असुर के विवाह के बावजूद तुलसी कैसे हुई विष्णु प्रिया
प्राचीन कथा अनुसार जालंधर नाम का एक पराक्रमी असुर था। जिसका विवाह वृंदा नाम की कन्या से हुआ। वृंदा का एक नाम तुलसी भी है। वृंदा भगवान विष्णु की परम भक्त और पतिव्रता नारी थी। भगवान श्री विष्णु की भक्त होने के कारण जालंधर अजेय हो गया। अपने अजेय होने का अभिमान असुर जालंधर के सिर चढ़ कर बोलने लगा। वह स्वर्ग की कन्याओं को भी परेशान करने लगा। उसके इस आतंक से आहत हो कर सभी देवता भगवान श्री विष्णु की शरण जाकर असुर जालंधर के आतंक को समाप्त करने की प्रार्थना करने लगे।

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भगवान विष्णु ने अपनी माया से जालंधर का रूप धारण कर छल से वृंदा के पतिव्रत धर्म को नष्ट कर दिया। इससे जालंधर की शक्ति क्षीण हुई और वह युद्ध में मारा गया। जब वृंदा को भगवान विष्णु के इस छल का पता चला तो उसने भगवान विष्णु को पत्थर बन जाने का श्राप दे दिया। यदि भगवान श्री विष्णु हरि पत्थर बन जाते तो अनर्थ हो जाता। एेसे में देवताओं की प्रार्थना पर वृंदा ने अपने श्राप को वापिस ले लिया। वृंदा के साथ हुए छल से लज्जित हुए भगवान विष्णु ने वृंदा के श्राप को जीवित रखने के लिए उन्होंने अपना एक रूप पत्थर रूप में प्रकट किया। जिसे शालिग्राम कहा जाता है।

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भगवान विष्णु को दिए श्राप को वापिस लेने पर वृंदा जालंधर के साथ ही सती हो गई। तब वृंदा की राख से तुलसी के पौधे का जन्म हुआ। वृंदा की मर्यादा और पवित्रता को बनाए रखने के लिए देवताओं ने भगवान विष्णु के शालिग्राम रूप का विवाह तुलसी से कराया। इसी घटना के बाद प्रतिवर्ष कार्तिक शुक्ल एकादशी यानी देव प्रबोधनी एकादशी के दिन तुलसी का विवाह शालिग्राम (भगवान श्री विष्णु) के साथ करवाने की परंपरा शुरु हुई।

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इस नदी से ही प्राप्त होता है शालीग्राम
शालिग्राम नामक पत्थर केवल गंडकी नदी से ही प्राप्त होता है। भगवान विष्णु ने वृंदा से कहा कि तुम अगले जन्म में तुलसी के रूप में प्रकट होगी। तुम लक्ष्मी से भी अधिक मेरी प्रिय रहोगी। तुम्हारा स्थान मेरे शीश पर रहेगा। मैं तुम्हारे बिना कभी भी भोजन ग्रहण नहीं करूंगा। यही कारण है कि भगवान विष्णु के प्रसाद में तुलसी को अवश्य रखा जाता है। बिना तुलसी के अर्पित किए प्रसाद को भगवान विष्णु स्वीकार नहीं करते हैं। देवउठनी एकादशी के दिन तुलसी विवाह करने की प्रथा है। कुछ लोग तुलसी विवाह द्वादशी के दिन भी करते हैं। ऐसी मान्यता है कि यदि किसी इंसान की बेटी नहीं है, तो वह यदि इस दिन तुलसी विवाह की रस्में निभाता है। तो उसे कन्या दान करने का पुण्य प्राप्त होता है। इस दिन के साथ ही मांगलिक कार्यों की शुरुआत भी हो जाती है। इसी दिन विष्णु स्वरूप शालीग्राम और तुलसी की शादी करवाने की परंपरा है।

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प्रदीप शाही

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