जानिए क्यों जरूरी है ‘यज्ञोपवीत संस्कार’ ? क्या है इसका वैज्ञानिक महत्व ?

भारतीय संस्कृति विश्व में अपनी अनूठी पहचान रखती है। इसका कारण इसकी परंपराएं, मान्यताएं और विशेषताएं हैं। ऊपर से देखने पर आप इसकी विशेषताओं को अच्छी तरह से नहीं समझ सकते। लेकिन जैसे-जैसे भारतीय संस्कृति को गहराई से समझने की कोशिश करते हैं वैसे ही इसकी मान्यताओं के महत्व का पता चलता है। संस्कार भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग हैं। जन्म से लेकर मृत्यु तक मानव जीवन में सोलह संस्कार निभाए जाते हैं। इन्हीं संस्कारों के द्वारा ही मानव में सदगुणों का संचार होता है। इन्हीं सोलह संस्कारों के अंतर्गत ही बालक का यज्ञोपवीत संस्कार करवाया जाता है। भारतीय संस्कृति के अनुसार जब कोई बालक शिक्षा प्राप्त करने की उम्र तक पहुंचता था तो उस समय उसका यज्ञोपवीत संस्कार करवाया जाता था। ग्रन्थों के अनुसार ब्राह्मण के लिए यह उम्र आठ वर्ष, क्षत्रिय के लिए ग्यारह वर्ष और वैश्य के लिए तेरह वर्ष थी। शूद्र को यज्ञोपवीत संस्कार की मनाही थी।

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यज्ञोपवीत में तीन धागों का महत्व

यज्ञोपवीत में तीन धागे होते हैं। जिनका अर्थ जीवन के तीन आश्रमों से संबंधित है। यह तीन धागे ब्रह्मचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ आश्रम का प्रतीक हैं। जबकि चौथे आश्रम में इसे उतार दिया जाता है। इसके अलावा तीन धागे तीन ऋणों के प्रतीक भी माने जाते हैं। प्रथम धागा पितृ ऋण, दूसरा धागा गुरु ऋण और तीसरा धागा देव ऋण का प्रतीक माना जाता है। यज्ञोपवीत संस्कार करवाके बालक को इन तीनों ऋणों से मुक्त रहने का बोध करवाया जाता है।

यज्ञोपवीत का धार्मिक महत्व

आज यह संस्कार केवल एक परंपरा बन कर रह गया है। लेकिन इसके पीछे कई धार्मिक व सामाजिक मान्यताएं हैं। यज्ञोपवीत धारण करने वाला व्यक्ति ब्रह्म के प्रति समर्पित माना जाता है। सनातन धर्म के अनुसार सूत के इन तीन धागों को ब्रह्मा, विष्णु व महेश का प्रतीक माना गया है।

लड़कियां भी पहन सकती हैं जनेऊ

वह लड़की जिसे आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करना हो वह लड़की जनेऊ धारण कर सकती है। ब्रह्मचारी तीन और विवाहित छह धागों का जनेऊ पहनता है। यज्ञोपवीत के छह धागों में से तीन धागे स्वयं के और तीन धागे पत्नी के बताए गए हैं।

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ब्रह्मचारी क्यों मांगते हैं भिक्षा

यज्ञोपवीत धारण करके जब कोई ब्रह्मचारी शिक्षा ग्रहण करने गुरूकुल जाता था तो वहां उसे भिक्षा मांगकर ही अपना निर्वाह करना पड़ता था। वह सारा दिन भिक्षा मांगकर जो भी खाने के लिए लाता था, वह अपने गुरू को समर्पित कर देता था। गुरू के तृप्त हो जाने के बाद जो कुछ भी बचता था उसे खाकर वह अपनी भूख मिटाता था। इस नियम के पालन द्वारा बालक के अंदर के अहम् को समाप्त करके उसमें विनम्रता व संयम आदि गुणों को जागृत करवाते हुए उसे श्रेष्ठ मानव बनाया जाता था।

यज्ञोपवीत का वैज्ञानिक महत्व

यज्ञोपवीत संस्कार के नियम विज्ञान की कसौटी पर भी खरे उतरते हैं। इसे धारण करने के अनेक लाभ हैं।

जीवाणुओं व कीटाणुओं से करे बचाव

जो लोग जनेऊ धारण करते हैं उन्हें अनेक नियमों का पालन करना पड़ता है। खासकर इसे धारण करने के बाद शरीर की सफाई व स्वच्छता का विशेष ध्यान रखा जाता है। जिसमें मूत्र इत्यादि का त्याग करते समय मुंह बंद रखा जाता है। इसकी आदत होने के बाद लोग बड़ी आसानी से गंदे स्थानों में पाए जाने वाले कीटाणुओं से बच जाते हैं।

गुर्दों की रक्षा

यह नियम है कि यज्ञोपवीत धारण करने के बाद व्यक्ति बैठ कर ही जलपान ग्रहण करता है और मूत्र का त्याग करता है। उक्त दोनों नियमों का पालन करने से गुर्दों पर प्रेशर नहीं पड़ता और गुर्दों की कार्य क्षमता बढ़ती है।

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कब्ज से होता है बचाव

जनेऊ को कान के ऊपर कसकर लपेटने का नियम है। इससे कान के पास से गुजरने वाली नसों पर दबाव पड़ता है जिसका सीधा संबंध आंतों के साथ है। इन नसों पर दबाव पड़ने से कब्ज की समस्या दूर होती है और पेट अच्छी तरह से साफ होता है।

बढ़ती है स्मरण शक्ति

मानव के दाएं कान के पास से वे नसें गुजरती हैं जिनका संबंध दिमाग से होता है। कान पर जनेऊ रखने से ओर कसने से स्मरण शक्ति बढ़ती है क्योंकि इसे कान पर रखने से दिमाग की वह नसें सक्रिय हो जाती हैं जिनका संबंध स्मरण शक्ति से होता है।

सपना (डा.)

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