क्यों शिव और नंदी के बीच से नहीं गुजरना चाहिए !
हिंदू धर्म सहित कई धर्मों के लोग मंदिरों में जाते हैं, कई लोगों के लिए अगर यह आस्था की बात है तो कुछ कौतुहल वश या फिर अपनी जिज्ञासा शांत करने जाते हैं, कि आखिर इस सनातन धर्म पद्धिति में ऐसा क्या है कि सहस्त्र शताब्दियों से यह प्रथा निरंतर चली आ रही है
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हिंदू मंदिरों, विशेष रूप से शिव मंदिरों अथवा शिववालय पर आज हम इसलिए चर्चा करने जा रहे हैं कि वाराणसी या स्वयं महादेव की नगरी काशी में ज्ञानवापी विवादास्पद स्थल में नंदी के बाहर विराजमान रहने और शिवलिंग के परिसर के अंदर होने पर छिड़ी बहस में कई लोगों की ओर से यह सवाल आया कि भगवान के साथ ही मंदिर में नंदी को स्थान क्यों नहीं दिया गया ! आखिर शिवलिंग के सामने ही क्यों बैठता है नंदी ! किसी अन्य दिशा में अथवा अन्य स्थान पर नंदी क्यों नहीं हो सकता !
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इसी सवाल के जवाब की तलाश में सामने आया कि पौराणिक कथाओं अनुसार सतयुग में जब सकारात्मक शक्तियों, यानि देवों और नकारात्मक शक्तियों, यानि असुरों ने जब एक साथ मिलकर समुद्र मंथन किया, हालांकि यह स्वयं में एक विरोधाभास वाली बात है कि सकारात्मक और नकारात्मक शक्तियां एक साथ कैसे आ सकती हैं! संभव है यह इतिहास, में एकमात्र दुर्लभ अवसर रहा होगा। चूंकि देवों और असुरों दोनों के बिना यह कार्य संभव नहीं था, ऐसे में एक पर्वत के साथ समुद्र मंथन करने के लिए दोनों ने एक साथ मिलकर प्रयास किया और अमरता का अमृत प्राप्त किया। इस कार्य के लिए उन्होंने वासुकी, सर्प, को रस्सी के रूप में उपयोग किया। एक सिरे से देवताओं और दूसरे सिरे से असुरों ने वासुकी को खींचने का काम किया। इस मंथन के दौरान बहुत सारी कीमती जड़ी-बूटियाँ और रत्न उत्पन्न हुए और उनमें से एक विष भी था। यह ’जहर’ इतना खतरनाक था कि कोई भी देव या असुर इसके पास नहीं जाना चाहते थे। यह हलाहल ऐसा लेस भरा पदार्थ था कि इस जहर के संपर्क में आने पर मानव कर्म देवत्व को मानवीय पीड़ा और अहंकार के दायरे में खींच लेता।
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ऐसे में कोई भी निकट नहीं आना चाहता था, देवता और असुर दोनों ही इससे दूर भाग गए। चंूकि अमृत प्राप्त करने से पहले यह विष आना था और अमृत पृथ्वि लोक के लिए आवश्यक था, इसलिए देवताओं के निवेदन पर भगवान शिव, नंदी के साथ, मदद के लिए आगे आए क्योंकि वे अकेले थे जो इस घातक जहर का मुकाबला कर सकते थे। शिव ने विष अपने हाथ में लिया और उसे पी लिया जहर उनके कंठ से उतरने लगा पर उन्होंने उसे अपने गले में ही रोक दिया। इसलिए शिव को नीलकंठ (नीले गले वाला) और विशाखंठ (विषाक्त गले वाला) के रूप में भी जाना जाता है। भगवान शिव के लिए गले में पहुंचा यह जहर हमेशा जलन का कारण बनता है। जबकि भगवान शिव को ध्यान (मेडीटेशन) में समय बिताना पसंद है और यह जलता हुआ गला उन्हें अपना ध्यान करने नहीं दे रहा था।
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इसके उपाय के रूप में उन्होंने नंदी को अपने सामने बैठने का आदेश दिया और कहा कि उनके गले पर लगातार शीतल हवा उड़ेलते रहें। इस फूंकी गई हवा उन्हें जलन से राहत मिलने लगी। तभी से, भगवान शिव नंदी की मदद से अपनी साधना में लीन रहते हैं। यही वजह है कि नंदी भगवान के ठीक सामने शिवलिंग की ओेर मुख करके बैठते हैं।
यही वजह है कि हमें शिव और नंदी के बीच से नहीं गुजरना चाहिए। जब भी हम भगवान शिव के मंदिर जाते हैं तो हमें नंदी और शिव लिंगम के बीच में से नहीं जाना चाहिए (हमें भगवान शिव और नंदी के बीच का रास्ता नहीं तोड़ना चाहिए)। अगर हम ऐसा करते हैं, तो कहा जाता है कि हम भगवान शिव की ध्यान भंग कर रहे हैं।
दिलचस्प है कि यदि हम भगवान शिव के साथ अपनी मनोकामना साझा करने की इच्छा रखते हैं, तो हमें नंदी के कानों में इच्छा बतानी चाहिए। भगवान शिव के ध्यान समाप्त होने के बाद नंदी आगंतुकों की इच्छाओं को साझा करते हैं।
आप हमें अपने सवाल लगातार कमेंट बाक्स में भेजते रहें, प्रयास होगा कि आपकी जिज्ञासा शांत कर सकें।