अदभुत् और अविश्वसनीय…. इस ‘दुर्गा मंदिर’ में नहीं होती मां दुर्गा की पूजा

भारतीय संस्कृति पूरे विश्व में अपनी अलग पहचान रखती है। भारतीय संस्कृति के रीति रिवाज, मान्यताएं, परंपराएं व विश्वास इसे अन्य संस्कृतियों से अलग करते हैं। इनके अलावा भी भारतीय संस्कृति का एक ऐसा अंग है या हिस्सा है जो देश ही नहीं विदेश के लोगों को भी अपनी ओर खींचता है। वह है भारत की धरोहर मानी जाने वाली प्राचीन इमारतें। इन इमारतों में राजाओं के शाही महल व किले तो आते ही हैं साथ ही वह प्राचीन व रहस्यमयी मंदिर भी आते हैं जो अपने वास्तु शिल्प व निर्माण शैली के कारण आज भी शोध का विषय बने हुए हैं। एक ऐसा ही प्राचीन रहस्यमयी दुर्गा मंदिर है जिसका नाम तो दुर्गा मंदिर है लेकिन इसमें न तो दुर्गा माता की पूजा होती है और न ही इसमें दुर्गा माता की कोई मूर्ति स्थापित है।

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प्राचीन दुर्गा मंदिर

मध्यकालीन युग से संबंधित प्राचीन दुर्गा मंदिर कर्नाटक के ऐहोल नामक स्थान पर स्थित है। यह अदभुत् मंदिर बादामी से 14 किलोमीटर की दूरी पर मल्लप्रभा नदी के किनारे पर है। नागर व द्रविड शैली में निर्मित इस मंदिर का निर्माण 7वीं और 8वीं शताब्दी के बीच चालुक्य वंश के शासकों द्वारा करवाया गया था।

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नहीं होती मां दुर्गा की पूजा

इस प्राचीन मंदिर से जुड़ी एक खास बात जो इसे अन्य दुर्गा मंदिरों से अलग करती है और सुनने वालों को हैरान करती है। वह यह है कि इस मंदिर में न तो मां दुर्गा की मूर्ति स्थापित है और न ही यहां माता की पूजा होती है। यहां तक कि इस मंदिर में कोई भी धार्मिक अनुष्ठान नहीं होता। माना जाता है कि वास्तव में यह एक प्राचीन किला है जिसका नाम दुर्गा रखा गया था। किले का समानार्थक शब्द ‘दुर्ग’ होता है यानि किले को दुर्ग भी कहा जाता है। इस मंदिर को यूनेस्को की विश्व विरासत की लंबित सूची में शामिल किया गया है।

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मंदिर का वास्तु शिल्प

मंदिर की संरचना मंदिर के चारों ओर घूमने वाली एक पेरिस्टाइल योजना के अनुसार की गई है। पेरिस्टाइल का मतलब  स्तंभ पंक्ति या खंभों की श्रेणी होता है। इस मंदिर की दीवारों पर विभिन्न देवी-देवताओं की मूर्तियां बनी हुई हैं जो पहली नज़र में ही हर पर्यटक का ध्यान अपनी ओर खींचती हैं। मंदिर के प्रवेश द्वार पर बनी दो सीढ़ियों से होते हुए पर्यटक मंदिर के बरामदे तक पहुंचते हैं। इस बरामदे से ही मंदिर के मुख्य कक्ष यानि गर्भगृह तक पहुंचा जाता है। मंदिर का आकार भारतीय पारंपरिक वास्तुकला के अनुरूप है। मंदिर के इस आकार को ‘गजाप्रस्त’ कहा जाता है जिसे आम शब्दों में हाथी के पीछे के हिस्से के समान कहते हैं।

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इस प्राचीन मंदिर की भव्यता को निहारने के लिए सारा साल ही बड़ी संख्या में देश व विदेश से पर्यटक आते हैं। सदियों पुराना यह प्राचीन मंदिर आज भी इतिहास का साक्षी बना ज्यों का त्यों खड़ा है।

धर्मेन्द्र संधू

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