-आखिर कौन थे यह तीन श्री कृष्ण
प्रदीप शाही
द्वापर युग का महाभारत काल सदियों से कई कारणों से चर्चा का विषय रहा है। इस काल के दौरान भघवान श्री विष्णु जी के अवतार भगवान श्री कृष्ण के मानव रुप में अवतरण, महाभारत के विशाल युद्ध का उल्लेख मिलता है। आमतौर पर भगवान श्री कृष्ण जी की ही लीलाओं का पुराणों में उल्लेख दर्ज है। इस काल के दौरान श्री कृष्ण नाम से एक नहीं तीन लोगों की जानकारी मिलती है। आईए, आज आपको बताएं, कि आखिर यह तीन श्री कृष्ण कौन थे। क्या यह सभी श्री कृष्ण, भगवान श्री विष्णु जी के अवतार थे। इस रहस्य से आपको अवगत करवाते हैं।
महाभारत काल में महर्षि वेदव्यास थे पहले श्री कृष्ण
महाभारत काल में मिलने वाले तीन श्री कृष्ण के उल्लेख में सबसे पहले महर्षि वेदव्यास (श्री कृष्ण) का नाम आता है। महर्षि वेद व्यास जिन्होंने महाभारत की रचना की थी। महर्षि वेद व्यास, माता सत्यवती और महर्षि पाराशर की संतान थे। महर्षि पराशर औऱ सत्यवती ने बचपन में इनका श्रीकृष्ण द्वैपायन रखा था। इनके नाम के बाबत दो प्रसंग मिलते हैं। पहले प्रसंग अनुसार महर्षि वेद व्यास का बचपन में रंग सांवला था। साथ ही इनका जन्म एक द्वीप पर हुआ था। इसी कारण इन्हें श्री कृष्ण द्वैपायन के नाम से पुकारा जाता था। दूसरे प्रसंग अनुसार महर्षि जन्म लेते ही युवा हो गए थे। युवा होते ही वह तपस्या करने के लिए द्वैपायन नामक द्वीप पर चले गए। कठोर तपस्या के कारण उनका रंग काला हो गया था। इसी कारण महर्षि को श्री कृष्ण द्वैपायन के नाम से पुकारा जाने लगा। श्री कृष्ण द्वैपायन का नाम चारों वेदों का बेहद सटीक ढंग से विभाग करने के चलते उन्हें वेद व्यास के नाम से नई पहचान मिली।
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भगवान श्री विष्णु के 24 अवतारों में महर्षि वेद व्यास का नाम भी शामिल है। इसलिए इनको पहला श्रीकृष्ण कहा जाता है। महर्षि वेदव्यास की अपार कृपा से ही महाराज धृतराष्ट्र, महाराज पांडु और महात्मा विदुर का जन्म हुआ था। इतना ही नहीं महर्षि वेद व्यास जी की कृपा से ही गांधारी ने 100 पुत्रों को जन्म दिया था। महर्षि वेदव्यास ने ही महाभारत के युद्ध के समय संजय को दिव्य दृष्टि का वरदान दिया था। ताकि वह राजमहल में ही बैठकर महाभारत के समूचे युद्ध की जानकारी महाराज धृतराष्ट्र को दी थी। इसके अलावा महर्षि वेदव्यास ने गुरु दोर्णाचार्य के बेटे अश्वथामा को अपना ब्रह्मास्त्र वापिस लेने के आदेश दिए थे। अश्वथामा की ओर से ब्रह्मास्त्र वापिस न लेने पर श्री कृष्ण की ओऱ से दिए श्राप को सही माना था। महर्षि वेदव्यास ने द्वापर काल के बाद जब कलयुग के प्रभाव को बढ़ता देखा तो उन्होंने ही पांडवों को स्वर्ग की यात्रा करने का आदेश दिया था। युद्ध के कुछ समय बाद महर्षि वेद व्यास ने अपने तप के बल पर एक दिन के लिए युद्ध में मारे गए सभी कौरव और पांडवों के भाई बंधुओं को जीवित कर दिया था। धर्म ग्रंथों अनुसार महर्षि वेदव्यास को आज भी जीवित माना जाता है।
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भगवान श्री कृष्ण थे दूसरे श्री कृष्ण
महाभारत काल में दूसरे श्री कृष्ण को ही असल में भगवान विष्णु जी का अवतार माना गया है। श्री कृष्ण की लीलाएं उस काल से लेकर मौजूदा समय तक भक्तों के कष्टों को दूर कर रही हैं। श्री कृष्ण ने महाभारत के युद्ध में पांडवों का साथ देते हुए वीर अर्जुन का सारथी बनते युद्ध में पांडवों को विजय दिलाई। कुरक्षेत्र के युद्ध में महाभारत के महानायक श्री कृष्ण ही थे। कुरुक्षेत्र की धरती पर चले 18 दिनों के युद्ध में उन्होंने अर्जुन को श्रीमद भागवत गीता का ज्ञान प्रदान किया। युद्ध के बाद श्री कृष्ण ने मथुरा को छोड़ कर द्वारिका में नगरी बसा कर वहां पर राजपाठ किया। श्री कृष्ण को गांधारी के मिले श्राप के कारण एक बहेलिए का जहर बुझा तीर लगा। इसके बाद श्री कृष्ण इस धरती को तज कर बैकुंठ धाम पहुंचे।
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राजा पौंड्रिंक थे महाभारत काल में तीसरे श्री कृष्ण
महाभारत काल में महर्षि वेद व्यास, भगवान श्री विष्णु के अवतार श्री कृष्ण के अलावा पुंडू देश के राजा पौंड्रिंक को तीसरे श्री कृष्ण के नाम से जाना जाता है। पौंड्रिंक को नकली श्री कृष्ण भी कहा जाता है। राजा पौंड्रिक को चेदि देश में पुरुषोत्तम के नाम से जाना जाता था। इनके पिता का नाम वासुदेव था। इसलिए वह अपने आप को वासुदेव श्री कृष्ण कहता था। पौंड्रिंक द्रौपदी के स्वयंवर में उपस्थित हुआ था। पौंड्रक अपने मूर्ख, स्वार्थी व चापलूस दोस्तों के कारण अपने आप को भगवान श्री विष्णु का अवतार कहने लग गया था। जबकि श्री कृष्ण को महज एक ग्वाला के रुप में ही देखता था। इथना ही नहीं उसने श्री कृष्ण की तरह ही अपनी वेशभूषा बना ली थी। राजा पौंड्रिक ने श्री कृष्ण को शंख, तलवार, मोर मुकुट, पीले वस्त्र, मनी धारण न करने का संदेश भी भे दिया था। न छोड़ने पर युद्ध की ललकार की। कुछ समय तक तो श्री कृष्ण ने उनकी बातों को नजरअंदाज किया। परंतु जब पौंड्रिक ने अपनी सभी सीमाएं लाघ दी तो श्री कृष्ण ने युद्द में पौंड्रिंक का वध कर दिया। और द्वारिका में चले गए।
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