इस पांडव कालीन मंदिर में पत्नी संग विराजमान हैं भगवान शनिदेव

शनिदेव का नाम सुनते ही लोगों के मन में सहम पैदा हो जाता है। सभी शनि के प्रकोप से डरते हैं। इसीलिए लोग शनि देव को क्रूर ग्रह मानते हैं। किन्तु ऐसा नहीं है। ज्योतिष के अनुसार शनि अच्छे कामों का अच्छा परिणाम और गलत काम का बुरा परिणाम देने वाले ग्रह माने जाते हैं। इसीलिए शनि को न्यायधीश या दंडाधिकारी भी माना जाता है। साथ ही ज्योतिष के अनुसार नाराज हुए शनिदेव को मनाकर उनके कोप से बचा भी जा सकता है। पूरे देश में शनिदेव की पूजा अर्चना की जाती है और देश के कई हिस्सों में शनिदेव के मंदिर मौजूद हैं। आज हम आपको एक ऐसे मंदिर के बारे में जानकारी देंगे जहां पर शनिदेव अपनी पत्नी के साथ विराजमान हैं।

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शनिदेव मंदिर कवर्धा

वैसे तो शनिदेव अन्य मंदिरों में अकेले ही अपने भक्तों को दर्शन देते हैं। लेकिन एक ऐसा मंदिर भी है जहां शनिदेव अपनी पत्नी देवी स्वामिनी के साथ विराजमान हैं। इस पावन स्थान पर दोनों की पूजा अर्चना की जाती है। यह मंदिर छत्तीसगढ़ के कवर्धा में स्थित है। इस स्थान पर पहुंचने का रास्ता थोड़ा कठिन है लेकिन फिर भी बड़ी संख्या में भक्त जहां शनिदेव के दर्शन करने आते हैं। छत्तीसगढ राज्य के कवर्धा जिले के करियाआमा गांव में स्थित मंदिर में स्थापित यह मूर्ति पांडव कालीन मानी जाती है।

धूल हटने पर सामने आई अद्भुत प्रतिमा

शनिदेव की प्रतिमा पर भक्तों द्वारा तेल चढ़ाने की परंपरा है। कहा जाता है कि इस स्थान पर स्थापित मूर्ति पर भी लगातार तेल चढ़ाने के कारण काफी धूल-मिट्टी की एक मोटी परत चढ़ गई थी। जब इस पावन प्रतिमा पर जमी परत को साफ किया गया तो शनिदेव के साथ ही उनकी पत्नी देवी स्वामिनी की भी मूर्ति प्राप्त हुई।

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मान्यता है कि पांडवों ने स्थापित की थी मूर्ति

स्थानीय लोगों का मानना है कि करियाआमा गांव में स्थित शनिदेव की प्रतिमा की स्थापना पांडवों द्वारा की गई थी। कहा जाता है कि अज्ञातवास के दौरान पांडवों ने कुछ समय इस स्थान के नजदीकी जंगल में भी व्यतीत किया था। इस अज्ञातवास के समय भगवान श्रीकृष्ण के कहने पर पांडवों ने शनिदेव की इस अदभुत मूर्ति को स्थापित किया था।

तेल चढ़ाए बिना आगे नहीं जाती थी बैलगाड़ी

प्राचीन समय में इस इलाके में बैगा जाति के आदिवासी लोग रहते थे। वह इस पावन स्थान को ओगन पाट कहते थे। उस दौरान इस मंदिर के चारों ओर दीवार नहीं थी। छत्तीसगढ़ी भाषा में ओगन का अर्थ तेल से भरे बांस के टुकड़े होता है। प्राचीन समय में ओगन यानि बांस के टुकड़े का प्रयोग बैलगाड़ी के पहियों में तेल डालने के लिए होता था। कहा जाता है कि बैलगाड़ी जब शनिदेव मंदिर के पास पहुंचती थी तो अपने आप ही रुक जाती थी और यह बैल गाड़ी तभी आगे बढ़ती थी जब लोग बांस के टुकड़े में भरा तेल शनिदेव की प्रतिमा को अर्पित करते थे।

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 पति-पत्नी साथ में करते हैं शनिदेव की पूजा

इस मंदिर को देश का एकमात्र सपत्नीक शनिदेवालय कहा जाता है। क्योंकि अन्य मंदिरों में शनिदेव अकेले ही भक्तों को दर्शन  देते हैं। इस मंदिर की खास बात यह है कि इस मंदिर में पति-पत्नी एक साथ शनिदेव की पूजा-अर्चना करते हैं।

शनि जयंती पर बड़ी संख्या में पहुंचते हैं श्रद्धालु

वैसे तो सारा साल ही शनिदेव के भक्त इस पावन स्थान पर शनिदेव के दर्शन करने व मनोकामनाएं मांगने आते हैं। लेकिन हर साल शनिदेव जयंती पर बड़ी संख्या में भक्त भगवान शनिदेव का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए पहुंचते हैं। इस अवसर पर भगवान शनिदेव का अभिषेक करके विशेष रूप से पूजा-अर्चना की जाती है। पूजा-अर्चना के बाद सामूहिक भोज का आयोजन किया जाता है। मंदिर की देखरेख के लिए बनाई गई मंदिर समिति इस स्थान को पूरी तरह से विकसित करने की ओर प्रयासरत है।

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कैसे पहुंचें

कवर्धा जिला मुख्यालय से भोरमदेव मार्ग से होते हुए 15 किलोमीटर की दूरी पर छपरी नामक गांव है। इससे आगे केवल 500 मीटर पर ही प्राचीन मड़वा महल है। मड़वा महल से चलकर जंगलों के बीचोबीच से होते हुए, पथरीले रास्ते पर चलते हुए करियाआमा गांव तक पहुंचा जाता है। इस 4 किलोमीटर लंबे कठिन रास्ते में संकरी नदी भी पार करनी पड़ती है। करियाआमा गांव में ही जंगल में स्थित है शनि देवालय जहां शनिदेव पत्नी संग दर्शन  देते हैं।

धर्मेन्द्र संधू

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