डॉ.धर्मेन्द्र संधू
देवभूमि हिमाचल प्रदेश में स्थित प्राचीन मंदिरों के दर्शन करने के लिए बड़ी संख्या में देश व विदेश से श्रद्धालु पहुंचते हैं। हिमाचल प्रदेश के कुछ मुख्य मंदिर चामुंडा देवी, ज्वाला जी, माता चिंतपूर्णी, माता ब्रजेश्वरी व बैजनाथ हैं। इनमें सारा साल ही भक्तों का तांता लगा रहता है। साथ ही कुछ ऐसे मंदिर भी हैं जो ऐतिहासिक व प्राचीन तो हैं लेकिन इन मंदिरों के बारे में केवल स्थानीय लोग ही जानते हैं। एक ऐसा ही प्राचीन मंदिर हिमाचल प्रदेश में स्थित है जिसे ‘कोटे वाली माता’ के नाम से जाना जाता है।
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कोटे वाली माता का मंदिर
हिमाचल प्रदेश के ऊंचे पहाड़ों की गोद में बसे नगर नूरपुर के नजदीकी गांव गुरियाल में ऊंची पहाड़ी पर स्थित है ‘कोटे वाली माता का मंदिर’। ऊंची चढ़ाई चढ़ने के बाद आगे कोई वहीकल नहीं जाता। इसके बाद सीढ़ियों से होते हुए श्रद्धालु माता के दर्शनों के लिए पहुंचते हैं। सीढ़ियों पर ही प्रसाद और खिलौने इत्यादि की दुकानें हैं। भक्त इन दुकानों से प्रसाद, नारियल के साथ ही माता को भेंट करने के लिए चुनरी खरीदते है। सीढ़ियां खत्म होते ही दो शेरों की आकृति वाला मुख्य गेट आता है। इसके बाद मुख्य भवन में मां कोटे वाली के दर्शन होते हैं। मां कोटेवाली इस स्थान पर पिंडी रूप में साक्षात विराजमान है।
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मंदिर परिसर में एक अमलतास का पेड़ है जहां पर भक्त माता के नाम का झंडा लगाते हैं। इसी पेड़ पर ही विवाह के बाद लड़कियां अपने हाथों का चूड़ा बांधती हैं। इस पेड़ के साथ बंधे अनेकों चूड़े व लगे हुए झंडे देखे जा सकते हैं।
मंदिर में अन्य देवी देवताओं की विशाल मूर्तियों के दर्शन भी होते हैं इनमें से मुख्य रूप में भगवान गणेश, मां काली, मां दुर्गा व हनुमान जी की मूर्तियां विशेष दर्शनीय हैं।
मंदिर का इतिहास
मंदिर के इतिहास व प्राचीनता के बारे में जानकारी देते हुए मंदिर के पुजारी राम सिंह पठानिया ने बताया कि 1600 ई. के करीब नूरपुर के राजा जगत सिंह का विवाह कोटागढ़ बूंदी के राजा की बेटी के साथ हुआ था और माता रानी के साथ ही इस स्थान पर आई थी। राजा को माता ने स्वप्न में दर्शन देते हुए, मंदिर का निर्माण करवाने के लिए कहा था। साथ ही यह भी कहा था कि उन्हें कोटे वाली माता के नाम से माना जाए। इसीलिए आज यह पावन स्थान कोटे वाली माता के नाम से प्रसिद्ध है।
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मंदिर से जुड़ी कथाएं
मंदिर में 1991 से पुजारी की सेवा निभा रहे राम सिंह पठानिया ने मंदिर से जुड़ी चमत्कारी कथाओं के बारे में बताया। एक बार एक गांव की एक महिला दो बच्चों सहित इस स्थान पर आई थी तो रात के समय तेज बारिश में माता ने उनकी मां के रूप में आकर सहायता की थी और उन्हें खाना इत्यादि खिलाया था। दूसरी कथा के अनुसार एक बार एक व्यक्ति ने माता से मन्नत मांगी थी लेकिन वह मन्नत पूरी होने पर मंदिर नहीं आ सका तो माता उसे घर से उठाकर जंगल में बांस के पेड़ के पास ले आई और कई दिनों तक उसके साथ ही रही। आज भी कोटे वाली माता के दरबार में आने वाले भक्तों की हर मनोकामना पूरी होती है।
मंदिर में आए श्रद्धालुओं ने बताया कि माता के दर्शन करने से उनकी हर मनोकामना पूरी होती है और घर में सुख शांति आती है साथ ही कष्ट कलेश भी दूर होते हैं।
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मंदिर में दी जाती थी बलि
इस प्राचीन मंदिर में बलि देने की प्रथा थी। इसके बाद हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट के निर्देशानुसार इस मंदिर में पशु बलि पर रोक लगा दी गई। लेकिन अब भी भक्त मन्नत पूरी होने पर बकरे को मंदिर में लेकर आते हैं और माता के आगे माथा टेकने के बाद उस बकरे को मंदिर के पास ही खुला छोड़ दिया जाता है।
मंदिर के पर्व व त्योहार
वैसे तो सारा साल ही श्रद्धालु माता के दर्शनों के लिए आते हैं लेकिन नवरात्रों में प्राचीन कोटे वाली माता मंदिर में बड़ी संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं। इस दौरान मेले व भंडारों का आयोजन होता है।
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मंदिर तक कैसे पहुंचें
पंजाब के पठानकोट से चलकर हिमाचल प्रदेश के जसूर से होते हुए 30 किलोमीटर की दूरी पर ‘राजा का तालाब’ नामक कस्बा है। इसी कस्बे के मुख्य बाजार में एक बड़ा गेट बना हुआ है। इस गेट में प्रवेश कर कई छोटे गांवों से होते हुए, भक्त अपनी कार या प्राइवेट टैक्सी से मंदिर तक पहुंचते हैं। ‘राजा का तालाब’ से मंदिर की दूरी लगभग 3 किलोमीटर है। ‘राजा का तालाब’ तक पठानकोट व तलवाड़ा से सरकारी व प्राईवेट बस के द्वारा पहुंच सकते हैं। पठानकोट से एक छोटी रेल गाड़ी कांगड़ा से होते हुए जोगिन्द्र नगर तक जाती है। नजदीकी रेलवे स्टेशन बल्ले दा पीर व तलाड़ा है।
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