यहां है भगवान शिव से पहले रावण की पूजा करने की परंपरा

-रावण ने यहां पर भोले नाथ को अर्पित किया था अपना शीश

पौराणिक वृतांत अनुसार रावण को भगवान शिव के परम भक्त के रुप में पहचाना जाता है। भगवान शिव की कठोर तपस्या कारण ही रावण ने भोले नाथ से कई वरदान हासिल किए। इन वरदान के साक्षात प्रमाण आज भी इस धरती पर मौजूद हैं। झीलों की नगरी उदयपुर से कुछ दूरी पर स्थित आवारगढ़ की पहाड़ियों पर भगवान शिव का कमलनाथ महादेव नामक एक प्राचीन मंदिर स्थित है। पुराणों अनुसार इस मंदिर की स्थापना स्वयं लंकापति रावण ने की थी। यही वह स्थान है जहां रावण ने अपना शीश भगवान शिव को अग्निकुंड में समर्पित कर दिया था। इस पावन स्थान की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहां पर भगवान भोले नाथ से पहले लंकापति रावण की पूजा की जाती है। कहा जाता है कि देवों के देव महादेव से पहले यदि रावण की पूजा न की जाए, तो सारी पूजा व्यर्थ हो जाती है।

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लंकापति रावण की कठोर तपस्या से यह स्थान बना कमलनाथ महादेव

कहा जाता है कि एक बार लंकापति रावण अपने आराध्य भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए कैलाश पर्वत पर जा तपस्या करने लगे। रावण के कठोर तप से प्रसन्न हो भगवान शिव ने रावण को वरदान मांगने को कहा। रावण ने भगवान शिव से उसके साथ लंका चलने का वरदान मांग डाला। भगवान शिव अपने भक्त रावण के साथ लिंग के रूप में साथ जाने को तैयार हो गए। उन्होंने रावण को एक शिव लिंग देने का साथ यह शर्त रखी कि यदि लंका पहुंचने से पहले तुमने इस शिव लिंग को धरती पर कहीं भी रख दिया तो मैं वहीं स्थापित हो जाउंगा। कैलाश पर्वत से लंका का रास्ता काफी लंबा था। रास्ते में लंकापति रावण को थकावट महसूस हुई और वह आराम करने के लिए एक स्थान पर रुक गया। न चाहते हुए भी रावण को शिव लिंग धरती पर रखना पड़ा। आराम करने के बाद जब रावण ने शिव लिंग उठाना चाहा, तो वह अपनी जगह से टस से मस भी न हुआ। तब रावण को अपनी गलती का एहसास हुआ। पश्चाताप करने के लिए वह फिर से तपस्या करने लगा। रावण एक दिन में एक बार भगवान शिव को सौ कमल के फूल अर्पित कर पूजन करने लगे। ऐसा करते-करते लंकपाति रावण को  साढ़े बारह साल बीत गए। वहीं दूसरी तरफ भगवान श्री ब्रह्मा जी को लगा कि अब रावण की तपस्या सफल होने वाली है। तो उन्होंने एक दिल पूजा में से एक  कमल का फूल चुरा लिया। पूजा के दौरान जब एक कमल का फूल कम पड़ा, तो रावण ने अपना एक शीश ही काटकर भगवान शिव को अग्नि कुण्ड में समर्पित कर दिया। भगवान शिव अपने भक्त की इस भक्ति से फिर प्रसन्न हो गए। और वरदान स्वरुप उसकी नाभि में अमृत कुण्ड की स्थापना कर दी। साथ ही इस स्थान को कमलनाथ महादेव के नाम से घोषित कर दिया। माना जाता है इसी स्थान पर भगवान राम ने भी अपने वनवास का कुछ समय बिताया था।

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आवारगढ़ की पहाड़ियों का एतिहासिक महत्त्व है

झालौड़ झाला राजाओं की जागीर थी। झालौड़ से 15 किलोमीटर की दुरी पर आवारगढ़ की पहाड़ियों पर एक किला आज भी मौजूद है। इस किले का निर्माण महाराणा प्रताप के दादा के दादा महाराणा ने बनवाया था। यह आवारगढ़ के किले के नाम से प्रसिद्ध है। कहा जाता है जब मुग़ल शासक अकबर ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया था, तब आवरगढ़ का किला ही चित्तौड़ की सेनाओं के लिए सबसे सुरक्षित स्थान था। 1576 में महाराणा प्रताप और अकबर की सेनाओं के मध्य हल्दी घाटी का संग्राम हुआ था। हल्दी घाटी के युद्ध में घायल सैनिकों को आवरगढ़ के इसी किले में उपचार के लिए लाया जाता था। इसी हल्दीघाटी के युद्ध में महान झाला वीर मान सिंह ने अपना बलिदान देकर महाराणा प्रताप के प्राण बचाए थे।

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सर्वप्रथम झालौड़ में होता है होलिका दहन

हल्दी घाटी के युद्ध के बाद आवरगढ़ के किले में ही 1577  में महाराणा प्रताप ने सबसे पहले होली दहन किया था। आज भी हर साल महाराणा प्रताप के अनुयायी होली के अवसर पर पहाड़ी पर एकत्रित हो कर कमलनाथ महादेव मंदिर के पुजारी होलिका दहन करते है।

 

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प्रदीप शाही

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