-ऋषि दधीचि की महाशक्तिशाली हड्डी से निर्मित हुई थी श्री कृष्ण जी की बांसुरी
-जर्मनी में संग्रहित हैं 40 हजार साल प्राचीन बांसुरियां
प्रेम से भेंट किया उपहार हमेशा ही यादगार होता है। फिर वह उपहार चाहे भगवान से मिला हो या फिर इंसान ने प्रदान किया हो। वह उपहार इसलिए अमूल्य हो जाता है, क्योंकि उस उपहार में उपहार प्रदान करने वालों की भावनाएं समाहित होती हैं। कुछ यही भावनाएं देवों के देव महादेव भगवान शंकर की ओर से भगवान श्री हरि विष्णू के अवतार भगवान श्री कृष्ण को सप्रेम भेंट की गई बांसुरी में भी समाहित थी। तभी तो भगवान श्री कृष्ण अपने अराध्य भगवान शिव की ओऱ से भेंट की गई बांसुरी को हर पल अपने अंग संग रखते हैं। बांसुरी के प्राचीन होने का प्रमाण इस बात को प्रमाणित करता है कि जर्मनी में 40 हजार साल प्राचीन बांसुरियां संग्रहित हैं। भारत में बांसुरी का नाम आते ही भगवान श्री कृष्ण का नाम जेहन में कौधने लग जाता है। मान्यता है कि घर के मंदिर में बांसुरी रखने से भगवान श्री कृष्ण प्रसन्न होते हैं।
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भगवान श्री कृष्ण को भेंट की थी भगवान शिव ने बांसुरी
द्वापर युग में जब भगवान श्री हरि विष्णू इस धरती पर भगवान श्री कृष्ण के रुप में अवतरित हुए। तो सभी देवी देवता वेश बदलकर समय-समय पर उनसे मिलने आने लगे। भगवान शिव में भी अपने प्रिय भगवान श्री कृष्ण के दर्शन करने की उत्सुक्तता बढ़ी। भोले बाबा ने सोचा वह श्री कृष्ण से मिलने धरती पर जा रहें है। तो उन्हें अपने साथ कुछ उपहार भी ले जाना चाहिए। वह सोच कर परेशान हो गए कि वह कौन सा उपहार अपने साथ ले जाएं। जो भगवान श्री कृष्ण को प्रिय भी लगे और वह हमेशा उनके साथ रहे। तव महादेव को याद आया कि उनके पास ऋषि दधीचि की महाशक्तिशाली हड्डी पड़ी है। ऋषि दधीचि वो महान ऋषि हैं, जिन्होंने धर्म के लिए अपने शरीर को त्याग दिया था। साथ ही अपने शक्तिशाली शरीर की सभी हड्डियां दान कर दी थीं। दान की गई इन हड्डियों की सहायता से भगवान श्री विश्वकर्मा ने तीन धनुष पिनाक, गाण्डीव, शारंग तथा इंद्र के लिए व्रज का निर्माण किया था। तब महादेव ने ऋषि दधीचि की एक हड्डी को घिसकर एक सुंदर व मनोहर बांसुरी का निर्माण किया। जब भोले बाबा भगवान श्री कृष्ण से मिलने गोकुल पंहुचे, तो उन्होंने श्री कृष्ण को भेंट स्वरूप वह बांसुरी प्रदान कर आशीर्वाद दिया। तभी से भगवान श्री कृष्ण उस बांसुरी को अपने पास रखते हैं।
जर्मनी में संग्रहित हैं 40 हजार साल पुरानी बांसुरियां
बांसुरी वाद्य के प्राचीन होने का इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि बांसुरी पूर्वकालीन संगीत उपकरणों में से एक है। जर्मनी के स्वाबियन अल्ब क्षेत्र में करीब 40 हजार साल पुरानी कई बांसुरियां पाई गई हैं। यह बांसुरियां प्रमाणित करती हैं कि संगीत परंपरा आधुनिक मानव की उपस्थिति के प्रारंभिक काल से ही अस्तित्व में थी। जर्मनी के उल्म के पास होहल फेल्स गुहा में 35 हजार साल पुरानी बांसुरी पाई गई। इस पांच छेद वाली बांसुरी में एक वी-आकार का मुखपत्र है। यह एक गिद्ध के पंख की हड्डी से बनी बताई गई। खोज में शामिल शोधकर्ताओं ने अपने निष्कर्षों को अगस्त 2009 में नेचर नामक जर्नल में प्रकाशित किया था। इसके अलावा कई अन्य प्राचीन बांसुरियों के मिलने की भी जानकारी है।
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दुनिया भर से बांसुरियों का एक संकलन
बांसुरी काष्ठ वाद्य परिवार का एक संगीत उपकरण है। जब यंत्र के छिद्र के आर-पार वायु धारा प्रवाहित की जाती है, जिससे छिद्र पर वायु कंपन होने के कारण बांसुरी ध्वनि उत्पन्न करता है। भारतीय बांसुरी के दो मुख्य प्रकारों का वर्तमान में प्रयोग हो रहा है। प्रथम, बांसुरी है, जिसमें अंगुलियों हेतु छह छिद्र एवं एक दरारनुमा छिद्र होता है। जिसका प्रयोग मुख्य तौर से उत्तर भारत में हिंदुस्तानी संगीत में किया जाता है। दूसरी वेणु या पुलनगुझाल है। जिसमें आठ अंगुली छिद्र होते हैं। इसका प्रयोग मुख्य रूप से दक्षिण भारत में कर्नाटक संगीत में किया जाता है।वहीं चीनी बांसुरी को डी कहा जाता है। चीन में डी की कई किस्में हैं। जापानी बांसुरी को फू कहते हैं जिनमें बड़ी संख्या में जापान की संगीतमय बांसुरी शामिल हैं।
कुमार प्रदीप