भगवान जगननाथ मंदिर के अजूबों को क्यों नहीं समझ पाई साइंस ??

-भगवान विष्णू के आठवें अवतार श्री कृष्ण जी से जु़ड़ी है मंदिर की पहचान
।।ॐ नमोः नारायणाय। ॐ नमोः भगवते वासुदेवाय।।
हिंदू संस्कृति में चारों धाम (हिमालय में बद्रीनाथ, गुजरात में द्वारिका, दक्षिण में रामेश्वरम, पुरी में जगननाथ) की यात्रा करते ही इंसान अपने जीवन को धन्य करने की परंपरा रही है। आज हम चारों धाम में से एक धाम भगवान जगननाथ मंदिर से जुड़े अजूबों की बात कर रहे हैं। यह सब अजूबे आज भी साइंस की समझ से परे हैं। उड़ीसा के समुद्री तट पुरी स्थित भगवान जगननाथ मंदिर में श्री कृष्ण अपने बड़े आई बलभद्र औऱ बहन सुभद्रा के साथ विराजमान है।

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इस मंदिर से जुडे़ अजूबे सभी को हतप्रभ करते हैं….
मंदिर का ध्वज हवा के विपरीत फहराता है…
भगवान श्री जगन्नाथ मंदिर के मुख्य गुंबद पर स्थापित लाल ध्वज हमेशा हवा की विपरीत दिशा में ही फहराता है। जो आश्चर्यजनक सत्य है। प्रतिदिन शाम को मंदिर के ऊपर लगे इस ध्वज को मंदिर मुलाजिम द्वारा उल्टा चढ़ा कर बदलने की पंरपरा है। इस ध्वज पर भगवान शिव का चंद्र निर्मित है।

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मंदिर के गुंबद की छाया नहीं बनती है…
मंदिर की भव्यता का इस बात से ही अनुमान लगाया जा सकता है कि यह मंदिर चार लाख वर्गफुट में क्षेत्र में फैला हुआ है। मंदिर की ऊंचाई लगभग 214 फीट है। मंदिर के इस विशाल गुंबंद को पास खडे हो कर देखना असंभव है। गुंबद की छाया दिन के समय अदृश्य ही रहती है।

 

अष्टधातू है अनूठा सुदर्शन चक्र…
मंदिर के शीर्ष पर स्थापित भगवान श्री कृष्ण जी के सुदर्शन चक्र को किसी भी एंगल से देखें तो वह आपको सदैव आपको सामने ही लगा दिखाई देगा। इस सुदर्शन चक्र को नीलचक्र भी कहते हैं। यह अष्टधातु से बनाया गया है।

जमीन से समुद्र की तरफ हवा का प्रवाह…
इस मंदिर की खास बात यह भी है कि इस मंदिर में हवा जमीन से समुद्र की ओर जाती है। जबकि समूद्री तटों पर हवा का प्रवाह समुद्र से जमीन की तरफ होता है।

मंदिर गुंबद के उपर पक्षी नहीं उड़ते हैं…
आज तक किसी ने भी मंदिर के गुंबद के उपर से और आसपास से किसी पक्षी को उड़ता हुआ नहीं देखा गया है। इतना ही नहीं मंदिर के उपर से विमान भी नहीं उड़ाया जाता है। आमतौर पर उंची इमारतों व उनके गुंबदों पर अक्सर पक्षियों को वास रहता देखा जा सकता है।

रसोई घर में सबसे उपर रखे बर्तन में भोजन सबसे पहले पकता है….
मंदिर के रसोई घर को विश्व का सबसे बड़ा रसोई घर माना गया है। भगवान के प्रसाद को लाखों भक्त एक साथ ग्रहण कर सकते हैं। मंदिर में प्रसाद को भोजन कहा जाता है। यहां पर 500 रसोइए 300 सहयोगियों के साथ बनाते हैं। मंदिर में बने भोजन की मात्रा कभी भी व्यर्थ नहीं गई है। मंदिर में आज भी भोजन को लकड़ी जला कर ही बनाने की पंरपरा है। मंदिर की रसोई में भोजन पकाने के लिए सात बर्तन एक-दूसरे पर रखे जाते हैं। इस प्रक्रिया में सबसे उपर रखे बर्तन में भोजने सबसे पहले पकता है।

द्वार खुले रहने के बावजूद मंदिर साउंड प्रूफ
मंदिर के द्वार खुले रहने के बावजूद मंदिर साउंड प्रूफ है। मंदिर के सिंह द्वार में पहला कदम प्रवेश करने पर सागर की कोई भी ध्वनि सुनाई नहीं देती है। मंदिर के बाहर निकलते ही ध्वनि सुनाई देती है। शाम के समय इसको बेहतर ढंग से अनुभव किया जा सकता है। मंदिर के बाहर स्वर्ग द्वार है,। जहां पर मोक्ष प्राप्ति के लिए शवों का अंतिम सस्कार किया जाता है। मंदिर के बाहर निकलने पर ही शव के जलने की गंध महसूस होती है।

हर 12 साल बाद नई प्रतिमा बनाने की पंरपरा
जगननाथ मंदिर में भगवान श्रीकृष्ण के अलावा बड़े भाई बलभद्र (बलराम) और बहन सुभद्रा विराजमान हैं। यह सभी मूर्तियां लकड़ी की बनी हुई है। हर 12 साल के बाद लकड़ी के नई मूर्तियां बनाने की परंपरा है। इन मूर्तियों का आकार और रूप प्राण-प्रतिष्ठित मूर्तियों समान ही होता है। इन मूर्तियों की पूजा नहीं होती है। केवल इन्हें भक्तों के दर्शानार्थ रखा जाता है।

हर साल आयोजित होती गै विश्‍व की सबसे बड़ी रथयात्रा…
हर साल भगवान जगननाथ रथ पर सवार होकर अपनी मौसी रानी गुंडिचा के घर जाते हैं। यह रथयात्रा 5 किलो‍मीटर में फैले पुरुषोत्तम क्षेत्र में आयोजित की जाती है। गौर हो रानी गुंडिचा भगवान जगन्नाथ के परम भक्त राजा इंद्रदयुम्न की पत्नी थी। इसीलिए रानी को भगवान जगन्नाथ की मौसी कहा जाता है। भगवान अपनी मौसी के में आठ दिन का वास करते हैं. यहां पर भगवान जगन्नाथ के रथ को नंदीघोष कहते है। देवी सुभद्रा के रथ को दर्पदलन कहते है। जबकि भाई बलभद्र के रक्ष को तल ध्वज कहते हैं। रथ के आगे पुरी के गजपति महाराज सोने की झाड़ू बुहारते हैं जिसे छेरा पैररन कहा जाता है।

अनूठी जानकारियां….
महाराजा रणजीत सिंह ने भगवान जगननाथ जी के मंदिर में भारी मात्रा में स्वर्ण दान किया था। जो अमृतसर स्थित श्री हरिमंदिर को दान में दिए गए स्वर्ण से कहीं अधिक बताया जाता है।
अज्ञातवास के दौरान पांच पांडव भगवान जगननाथ जी के दर्शन करने आए थे।
ईसा मसीह के कश्मीर दौरे के बाद बेथलेहम जाते समय उन्होंने भगवान जगन्नाथ के दर्शन किए थे।

मंदिर का इतिहास…

किदवंति अनुसार भगवान श्री जगननाथ के मंदिर में सर्वप्रथम सबर आदिवासी विश्‍ववसु ने नीलमाधव के रूप में पूजा की थी। मौजूदा समय में भी मंदिर में कई सेवक एेसे हैं, जिनकी दैतापति के नाम से पहचाना जाता है। इस मंदिर को राजा इंद्रदयुम्न की ओर से बनाने की भी बात कही जाती है। एक रात राजा को भगवान विष्णू ने स्वपन में आकर नीलांचल पर्वत की एक गुफा में अपनी मूर्ति होने की बात कही। जिसे नील माधव कहते हैं। साथ इस मूर्ति को मंदिर में स्थापित करने के लिए कहा। राजा ने मूर्ति को ढूंडने के आदेश दिए। मूर्ति को आखिर ढूंड लिया गया। भगवान ने फिर दर्शन देकर समूद्र में तैर रहे पेड़ के टुकड़े को ढूंड कर उससे ही मूर्ति बनाने के लिए कहा। नीलमाधव के परम भक्त सबर कबीले के मुखिया विश्‍ववसु ने उस भारी भरकम लकड़ी को उठाकर मंदिर तक ले गए। तब भगवान विश्‍वकर्मा एक बूढ़े शिल्पकार का रूप धरकर पहुंचे। उन्होंने राजा से नीलमाधव की मूर्ति बनाने की बात कही। साथ ही शर्त रखी कि वह 21 दिन में मूर्ति बना देंगे, लेकिन कोई भी उन्हें मूर्ति बनाते नहीं देखेगा। शर्त को स्वीकार कर मूर्ति निर्माण का काम शुरु हो गया। मंदिर में मूर्ति बनाने की आवाजें आती सुनाई देती। एक दिन राजा की पत्नी वहां गई, उसने दरवाजे पर कान लगाए,तो उन्हें कुछ भी नहीं सुनाई दिया। राजा को इसकी सूचना दी। राजा ने भी मूर्तिकार की शर्त को नजरअंदाज कर दरवाजा खोलने के लिए कहा। कमरा खोलने पर बूढा आदमी गायब था। वहां पर तीन अधूरी प्रतिमाएं पड़ी थी। भगवान नीलमाधव और उनके भाई के छोटे-छोटे हाथ बने थे, लेकिन उनकी टांगें नहीं, जबकि सुभद्रा के हाथ-पांव बनाए ही नहीं गए थे। राजा ने इसे प्रभू की इच्छा स्वीकाते हुए ही इन अधूरी मूर्तियों की मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा कर दी। तब से आज तक यह मूर्तियां इसी तरही मंदिर में विरजमान हैं। मौजूदा समय में जो मंदिर है वह सातवीं सदी में निर्मित किया गया माना जाता है। इस मंदिर के आससपास 30 छोटे-बड़े मंदिर विद्यमान है।

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