-कर्ण अंतिम समय तक भी बने रहे दानवीर
महाभारत काल से संबंधित भगवान श्री कृष्ण सहित अन्य भी पात्र किसी न किसी कारण से सदियों से चर्चा का विषय रहे हैं। धर्म औऱ अधर्म के मध्य हुए विशाल युद्ध में पांडव यदि नायक तो वहीं अधर्म का साथ देने पर कौरव खलनायक बन उभरे। महाभारत में कौरवों का साथ देने के बावजूद कर्ण की दानवीरता ने हमेशा सभी को प्रभावित किया। कर्ण समूचे जीवन में ही नहीं अंतिम समय तक दानवीर होने के अपने कर्म से पीछे नहीं हटे। यही कारण था कि दानवीर कर्ण का भगवान श्री कृष्ण ने अपने हाथों पर उसका अंतिम संस्कार कर उसे मोक्ष प्रदान किया था। आईए, आज आपको इस रहस्य से अवगत करवाते हैं। आखिर किस कारण इस धरती पर कर्ण का संस्कार नहीं किया गया था।
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कौन थे दानवीर कर्ण ?
कर्ण कुंती के सबसे बड़े पुत्र थे। जब सूर्य देव ने कुंती को वरदान दिया तो मंत्रबल से उन्हें पुत्र रूप में कर्ण की प्राप्ति हुई थी। उस समय कुंती अविवाहित थीं, इसलिए उन्होंने समाज के तानों से डल कर कर्ण का त्याग कर दिया। बाद में कर्ण का एक रथचालक ने पालन पोषण किया। रथचालक का पुत्र होने के कारण उन्हें सुतपुत्र कहा गया। यह नाम कर्ण को पसंद नहीं था। कई योद्धाओं की ओर से उनका इस नाम से मखौल उड़ाया गया। वह युद्धविद्या में पारंगत थे, लेकिन उन्हें कभी भी क्षत्रिय के समान सम्मान नहीं मिला। उनके साथ हुए अन्याय के कारण अधिकतर लोग उनके प्रति सहानुभूति रखते हैं। इतना ही नहीं भगवान श्री कृष्ण भी उनके प्रति आदरभाव रखते थे।
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कर्ण के दो विवाह हुए, उनके नौ पुत्र थे
कर्ण की पहली शादी एक रथचालक की बेटी रुषाली से हुई थी। जबकि दूसरा विवाह सुप्रिया से हुआ। कर्ण के इन दोनों पत्नियों से कुल नौ बेटों ने जन्म लिया। महाभारत युद्ध के दौरान दानवीर कर्ण के आठ बेटों की मौत हो गई थी। उनका केवल एक पुत्र वृशकेतु ही जीवित रहा था। कर्ण की मौत के समय जब पांडवों को जब माता कुंती कर्ण की हकीकत बताई, तो उन्हें बहुत दुख हुआ। तब पांडवों ने अपने बड़े भाईई वृशकेतु को बहुत स्नेह से रखते हुए उसे इंद्रप्रस्थ का सिंहासन सौप दिया था। वृशकेतु ने वीर अर्जुन के साथ मिलकर कई युद्ध लड़े व जीते।
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कर्ण कैसे बने दानवीर
भगवान श्री कृष्ण ने अपने सखा अर्जुन के प्राण बचाने के लिए इंद्र देव के साथ मिलकर छल से कर्ण का दिव्य कवच और दिव्य कुंडल दान में ले लिए। तब श्री कृष्ण ने उन्हें दानवीर होने का आशीर्वाद दिया। महाभारत युद्ध में जब कर्ण मृत्युशैया पर थे, तब श्री कृष्ण एक बार उनकी परीक्षा लेने के लिए आए। तब कर्ण ने श्री कृष्ण को कहा कि उसके पास देने के लिए कुछ भी नहीं है। तब श्री कृष्ण ने उनसे उनका सोने का दांत मांग लिया। कर्ण ने अपने समीप पड़े पत्थर को उठा कर अपना दांत तोड़कर श्री कृष्ण को दे दिया। श्री कृष्ण ने कहा कि यह स्वर्ण तो जूठा है। तब कर्ण ने अपने धनुष से धरती पर बाण मारा और वहां से गंगा की तेज जलधारा निकल पड़ी। उससे दांत धोकर कर्ण ने कहा अब तो ये शुद्ध हो गया। श्रीकृष्ण ने तभी कर्ण को कहा था कि तुम्हारी यह बाण गंगा युग युगों तक तुम्हारा गुणगान करती रहेगी।
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श्री कृष्ण ने कर्ण का अपने हाथों पर किया अंतिम संस्कार
अंतिम समय में भी कर्ण दान देने में पीछे नहीं हटे। एक बार फिर उन्होंने अपने दानवीर होने का प्रमाण दिया। जिससे श्री कृष्ण बेहद काफी प्रभावित हुए। तब श्री कृष्ण ने कर्ण से कहा कि वह उनसे कोई भी वरदान मांग़ सकते हैं। कर्ण ने कृष्ण से कहा कि एक निर्धन सुत पुत्र होने की वजह से उनके साथ बहुत छल हुए हैं। भविष्य़ में एेसा न हो। कर्ण ने कहा कि उनका अंतिम संस्कार ऐसे स्थान पर हो, जहां कोई पाप न हुआ हो। उनकी इस इच्छा को सुनकर कृष्ण दुविधा में पड़ गए थे। क्योंकि पूरी पृथ्वी पर ऐसा कोई स्थान नहीं था, जहां एक भी पाप नहीं हुआ हो। ऐसी कोई जगह न होने के कारण कृष्ण ने कर्ण का अंतिम संस्कार अपने ही हाथों पर किया। इस संस्कार के पूर्ण होने पर दानवीर कर्ण मृत्यु के बाद साक्षात वैकुण्ठ धाम को प्राप्त हुए।
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प्रदीप शाही