दानवीर कर्ण, सूर्य पुत्र ही नहीं, दानव पुत्र भी थे…

-कर्ण में थी देव और दानव की दो आत्माओं का वास
द्वापर युग में 18 दिनों तक निरंतर चले भीष्ण महाभारत युद्ध में दानवीर, महायोद्धा के नाम से पहचान रखने वाले कर्ण को सूर्य पुत्र कहा जाता है। परंतु बहुत कम लोग जानते हैं कि दानवीर कर्ण सूर्य पुत्र होने के साथ-साथ दानव दंबोद्धव के भी पुत्र थे। कर्ण में देव और दानव दोनों की आत्माओं का वास था। आप भी हैरान होंगे कि ये कैसे संभव हो सकता है कि एक इंसान में दो आत्माओं की मौजूदगी कैसे संभव हो सकती है। आईए आपको इस बारे विस्तार से जानकारी प्रदान करते हैं कि आखिर कैसे कर्ण में देव और दानव दोनों कैसे एक साथ वास करते थे।

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कर्ण से जुड़े हैं त्रेता युग की कहानी के तार
त्रेता युग में एक दानव दंबोद्धव ने अमरत्व का वरदान हासिल करने के लिए सूर्य देव की कठोर तपस्या की। तपस्या से प्रसन्न हो कर जब सूर्य देव ने दंबोद्धव से वरदान मांगने के लिए कहा तो दानव दंबोद्धभ ने अमर होने का वरदान मांगे। परंतु सूर्य देव ने कहा कि इस धरती पर कोई भी अमर नहीं हो सकता है। तब दानव दंबोद्धव ने सूर्य भगवान से एक हजार दिव्य कवचों की मांग की। साथ ही एक कवच का भेदन वह ही कर सके। जिसके पास एक हजार साल तपस्या का फल हो। परंतु एक कवच के टूटने के साथ ही कवच तोड़ने वाले की मौत हो जाए।

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सूर्य देव जानते थे कि इस वरदान से दानव धरती पर रहने वालों को तंग करेगा। परंतु तपस्या का फल देने के लिए उन्होंने तथास्तु कहा। दंबोद्धव वरदान मिलते ही इसका दुरुपयोग करने लगा। दंबोद्धव को लोग सहस्र कवच के नाम से जानने लगे। इसी दौरान सती के पिता दक्ष प्रजापति ने अपनी बेटी मूर्ति का विवाह भगवान ब्रह्मा जी के मानस पुत्र धर्म से किया। मूर्ति ने सहस्र कवच के बारे सुना। तो उन्होंने भगवान विष्णु से सहस्र कवच का वध करने की प्रार्थना की। भगवान हरि ने उन्हें कहा कि वह एेसा जरुर करेंगे।

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कुछ समय के बाद मूर्ति ने दो जुडवा पुत्रों को जन्म दिया। जिनके नाम नर और नारायण थे। नर औऱ नारायण दो शरीर होते हुए भी एक थे। इन दोनों के शरीर में एक ही आत्मा थी। नर औऱ नारायण के शरीर में भगवान श्री विष्णु जी का ही वास था। दोनों भाई बड़े हुए। एक दिन दंबोद्धव ने अपने सामने एक दिव्य पुरुष को आता देख कर भय का अनुभव किया। उस पुरुष ने कहा कि मैं नर हूँ । और तुमसे युद्ध करने आया हूँ । तब दंबोद्भव ने कहा कि तुम शायद मेरे बारे नहीं जानते। मेरा कवच सिर्फ वही तोड़ सकता है। जिसने हज़ार साल तक तप किया हो । तब नर ने कहा कि मैं और मेरा भाई नारायण एक ही हैं। वह मेरे बदले तप कर रहा है। और मैं उसके बदले तुमसे युद्ध करुंगा।
युद्ध शुरू होने के साथ नारायण के तप से नर की शक्ति बढती चली जा रही थी । जैसे ही हज़ार वर्ष का समय पूर्ण हुआ। नर ने सहस्र कवच का एक कवच तोड़ दिया, परंतु सूर्य देव के वरदान अनुसार जैसे ही कवच टूटा नर की मौत हो गई। सहस्र कवच दानव ने कहा कोई बात नहीं केवल एक कवच ही गया। तभी सामने नर की तरह दिखाई देने वाला इंसान सामने आ गया। जो नारायण थे। दंबोद्भव ने कहा कि तुम्होरा भाई ने व्यर्थ में एक कवच को तोड़ने के लिए अपने प्राण गंवा दिए। तब नारायण ने नर के पास बैठ कर मंत्र पढ़ा। तो नर जीवित हो गया। तब दंबोद्धव समझ गया नारायण ने मृत्युंजय मंत्र को एक हजार साल की तपस्या से हासिल कर नर को जीवित किया है।

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इस घटना के बाद नारायण ने सहस्र कवच को ललकारा और नर तपस्या में बैठ गए। इस तरह यह समूचा घटनाक्रम 999 साल तक अनवरत जारी रहा। एक भाई युद्ध करता दूसरा तपस्या, हर बार कवच टूटने पर एक भाई की मृत्यु होने पर दूसरा उसे पुनर्जीवित कर देता। जब 999 कवच टूट गए तो सहस्र्कवच समझ गया कि अब मेरी मृत्यु निश्चित है। तब वह युद्ध त्याग कर सूर्यलोक भाग कर सूर्यदेव की शरण में पहुंच गया। नर और नारायण उसका पीछा करते सूर्य लोक पहुंच गए। सूर्यदेव से उसे सौंपने को कहा। तब सूर्य देव ने अपनी शरण में आए अपने भक्त को सौंपने से इंकार कर दिया। तब नारायण ने अपने कमंडल से जल लेकर सूर्यदेव को श्राप दिया कि आप इस असुर को उसके कर्मफल से बचाने के प्रयास में पापों के भागीदार हो गए हैं। अब आप और दानव दोनों एक साथ जन्म लेकर अपना कर्मफल भोगेंगे। इस श्राप के बाद ही त्रेतायुग समाप्त हुआ और द्वापर युग प्रारम्भ हुआ ।

कुंती ने दिया था कवच धारक कर्ण को जन्म
द्वापर युग् में कुंती ने भगवान एक वरदान को जांचने के लिए सूर्यदेव का आवाहन किया। तब कवच धारक कर्ण का जन्म हुआ। नर और नारायण के श्राप के कारण कर्ण, सूर्यपुत्र ही नहीं है, दंबोद्धव का पुत्र भी था। जैसे नर और नारायण में दो शरीरों में एक आत्मा थी, उसी तरह कर्ण के एक शरीर में सूर्य और सहस्रकवच दंबोद्धव की आत्माओं का वास था। वहीं दूसरी तरफ इस युग में नर ने अर्जुन व नारायण ने भगवान कृष्ण के रूप में जन्म लिया। कर्ण को जन्म के साथ कवच व कुंडल प्राप्त हुए थे। एेसे में उसके भीतर सूर्य का अंश होने के कारण वह बेहद तेजस्वी वीर बना। वहीं दानव दंबोद्भव का अंश होने के कारण उसे अन्याय और अपमान का भी सामना करना पड़ा। वही द्रौपदी का अपमान और ऐसे ही अनेक अपकर्म करने पड़े। यदि अर्जुन कर्ण का कवच तोड़ता, तो तुरंत ही उसकी मृत्यु हो जाती । इसीलिये इंद्र देव ने ब्राह्मण का रुप धारण कर कर्ण से कवच पहले ही दान में ले लिया था।

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प्रदीप शाही

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