-17वीं शताब्दी तक नक्शे में अफगानिस्तान नाम का कोई राष्ट्र नहीं था
सदियों पहले के अखंड भारत की पहचान एक एेसे हिंदू राष्ट्र के रुप में थी। जिसकी सीमाएं मौजूदा अफगानिस्तान और पाकिस्तान को अपने आप में समेटे हुए थी। दसवीं शाताब्दी तक मौजूदा अफगानिस्तान की एक हिंदू राष्ट्र के रुप में पहचान थी। इसके बाद यहां पर बौद्ध धर्म ने इस क्षेत्र में अपना वर्चस्व जमा लिया। परंतु आज यह इस्लामिक राष्ट्र के रुप में पहचान रखता है। सबसे खास बात यह है कि 300 साल पहले तक विश्व के नक्शे में अफगानिस्तान नाम का कोई राष्ट्र भी नहीं था। इस क्षेत्र का उल्लेख तो सबसे प्राचीन ऋग्वेद और महाभारत काल में भी मिलता है।
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गुरु गोरखनाथ, गांधारी थे इस क्षेत्र के वसनीक
मौजूदा अफगानिस्तान में पहले आर्यों के कबीले आबाद थे। जिन्होंने सदियों तक राज किया। यह सभी लोग वैदिक धर्म का पालन करते थे। फिर लंबे समय तक बौद्ध धर्म के प्रचार के बाद यह स्थान बौद्धों का गढ़ बन गया। यहां पर रहने वाले सभी लोग बौद्ध धर्म के प्रभाव में आने के बाद ध्यान और रहस्य की खोज में लग गए। 17वीं सदी तक अफगानिस्तान नाम का कोई राष्ट्र विश्व के नक्शे में नहीं था। अफगानिस्तान नाम का चलन 1747 से 1773 में अहमद शाह दुर्रानी के शासन-काल में हुआ। इस्लाम के आगमन के बाद यहां नई क्रांति की शुरुआत हुई। बुद्ध के दिखाए शांति के मार्ग को छोड़कर ये लोग क्रांति के मार्ग पर चल पड़े। शीतयुद्ध के दौरान अफगानिस्तान को तहस-नहस कर यहां की संस्कृति और प्राचीन धर्म के चिह्न तक मिटा दिए गए। इस क्षेत्र को पहले आर्याना, आर्यानुम्र वीजू, पख्तिया, खुरासान, पश्तूनख्वाह और रोह नामों से पुकारा जाता था । जिसमें गांधार, कंबोज, कुंभा, वर्णु, सुवास्तु प्रमुख क्षेत्र थे। सबसे अहम बात यह है कि गुरु गोरखनाथ पठान जाति से संबंधित थे। इतना ही नहीं लगभग 3500 साल पहले एकेश्वरवादी धर्म की स्थापना करने वाले दार्शनिक जोरास्टर भी इसी क्षेत्र में रहते थे। 13वीं शताब्दी के महान कवि रूमी का जन्म, महाभारत में धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी, महान संस्कृत व्याकरणाचार्य पाणिनी का संबंध इसी क्षेत्र से था।
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ऋग्वेद में हैं पठानों का जिक्र
पठानों को पहले पक्ता, पख्तून कहा जाता था। ऋग्वेद के चौथे खंड के 44वें श्लोक में भी पख्तूनों का वर्णन पक्त्याकय नाम से और अफगान नदियों का उल्लेख मिलता है। इसी तरह तीसरे खंड के 91वें श्लोक में आफरीदी कबीले को आपर्यतय से पुकारा गया है। अंग्रेजी शासन में पिंडारियों के रूप में अंग्रेजों से लडने वाले लोग पठान और जाट ही थे। पठान, जाट समुदाय का ही एक वर्ग है। कुछ लोग इन्हें बनी इसराइलियों का वंशज भी मानते हैं।
महाभारत में गांधार और कंबोज का है उल्लेख
महाभारत में कंबोज और गांधार के कई राजाओं का उल्लेख मिलता है। जिनमें कंबोज के सुदर्शन और चंद्रवर्मन मुख्य हैं। गांधारी गांधार देश के सुबल नामक राजा की कन्या थीं। वहां की राजकुमारी होने के कारण इसका नाम गांधारी पड़ा। यह हस्तिनापुर के महाराज धृतराष्ट्र की पत्नी और कौरवों की माता थीं। पुरुषपुर मौजूदा पेशावर तथा तक्षशिला इसकी राजधानी थी। गांघार क्षेत्र की भेड़ों की उन बेहद उम्दा मानी गई। वहीं वाल्मीकि-रामायण में कंबोज, वाल्हीक और वनायु देशों के श्रेष्ठ घोड़ों का उल्लेख है। वीर अर्जुन ने उत्तर दिशा की यात्रा के दौरान दर्दरों या दर्दिस्तान के निवासियों से मिल कर कंबोजों को परास्त किया था। सम्राट अशोक के पांचवें शिलालेख में कंबोज का गंधार के साथ उल्लेख मिलता है। इसका मतलब यह कि गांधार कंबोज का ही हिस्सा था।
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कल्लार राजा ने की हिंदूशाही की स्थापना
843 ई. में कल्लार राजा ने हिंदूशाही राष्ट्र की स्थापना की। तत्कालीन सिक्कों से पता चलता है कि कल्लार के पहले भी रुतविल, रणथल, स्पालपति और लगतुर मान नामक हिंदू या बौद्घ राजाओं का गांधार प्रदेश में राज था। यह लोग अपने आप को कनिष्क का वंशज मानते थे। यहां पर हिंदू राजाओं को काबुलशाह या महाराज धर्मपति कहते थे। इन राजाओं में कल्लार, सामंतदेव, भीम, अष्ट पाल, जय पाल, आनंद पाल, त्रिलोचन पाल, भीमपाल ने नाम उल्लेखनीय हैं। इन राजाओं ने 350 साल तक अरब लुटेरों को सिंधु नदी पार कर भारत में घुसने नहीं दिया। 1019 ई. में महमूद गजनी से त्रिलोचनपाल की हार के बाद यहां के इतिहास में बदलाव आ गया। चीनी यात्री युवान च्वांग ने इस क्षेत्र के बौद्धकाल का इतिहास लिखा। यहां पर गौतम बुद्ध ने लगभग छह माह का समय व्यतीत किया। बौद्धकाल में अफगानिस्तान की राजधानी बामियान हुआ करती थी। सिकंदर के आक्रमण के समय फारस में हखामनी शाहों का शासन था। आर्यकाल में यह क्षेत्र अखंड भारत का हिस्सा था। इन राजाओं ने सोने के सिक्के भी चलाए। यह सिक्के इतने अच्छे थे कि 908 में बगदाद के अब्बासी खलीफा अल-मुक्तदीर ने वैसे ही देवनागरी सिक्कों पर अपना नाम अरबी में खुदवाकर नए सिक्के जारी करवाए थे।
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मौजूदा नदियों, शहरों के नाम क्या थे पहले
मौजूदा समय में आमू, काबुल, कुर्रम, रंगा, गोमल, हरिरुद नदियां अफगानिस्तान की पहचान है। प्राचीन भारतीय लोग इन्हें वक्षु, कुभा, कुरम, रसा, गोमती, हर्यू या सर्यू के नाम से जानते थे। वहीं इन मौजूदा शहरों काबुल, कंधार, बल्ख, वाखान, बगराम, पामीर, बदख्शां, पेशावर, स्वात, चारसद्दा को प्राचीन काल में संस्कृत में कुभा या कुहका, गंधार, बाल्हीक, वोक्काण, कपिशा, मेरू, कम्बोज, पुरुषपुर (पेशावर), सुवास्तु, पुष्कलावती के नाम से जाना जाता था। मौजूदा बगराम हवाई अड्डे वाला क्षेत्र कभी कुषाणों की राजधानी था। उसका नाम कपीसी था।
प्राचीन अवशेष हैं यहां संग्रहित
सुर्ख कोतल नामक जगह में कनिष्क-काल के भव्य खंडहर अब भी देखे जा सकते हैं। इन्हें आज कल कुहना मस्जिद के नाम से जाना जाता है। पेशावर और लाहौर के संग्रहालयों में इस काल की विलक्षण कलाकृतियां अजा भी संग्रहित है। बामियान, जलालाबाद, बगराम, काबुल, बल्ख स्थानों में अनेकों मूर्तियां, स्तूप, विश्वविद्यालयों और मंदिरों के अवशेष मिलते हैं। काबुल के आसामाई मंदिर को दो हजार साल पुराना माना जाता है। काबुल का संग्रहालय बौद्घ अवशेषों का खजाना रहा है। बामियान की सबसे ऊंची और विश्वप्रसिद्घ बुद्घ प्रतिमा को लगभग नष्ट कर दिया।
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प्रदीप शाही