-1699 में की खालसा पंथ की स्थापना
खालसा पंथ की स्थापना कर एक नए इतिहास का सृजन करने वाले गुरु गोबिंद सिंह एक एेसी शख्सीयत थी, जिनके नाम के साथ एक योद्धा, कवि, संत, गुरु, दशम पिता, सरबंसदानी, कलगीधर, संत सिपाही के अलंकार सुशोभित हैं। यह अलंकार ही उनकी अजीम शख्सीयत की पहचान को दर्शाते हैं। कई भाषाओं के ज्ञाता गुरु गोबिंद सिंह की दूरदर्शिता ने ही मुगल साम्राज्य को जड़ से उखाड़ने में अहम रोल अदा किया। लोहड़ी पर्व पर इस साल गुरु साहिब का 453वां अवतरण दिवस धूमधाम व श्रद्धा से मनाया जा रहा है।
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पटना में हुआ गुरु साहिब का जन्म
गुरु गोबिंद सिंह का जन्म दिवस गुरु तेग बहादुर साहिब और माता गुजरी जी के घर पांच जनवरी 1666 को हुआ। धर्म परिवर्तन करके मुसलमान बनाये जाने के खिलाफ शिकायत लेकर और इस्लाम धर्म न स्वीकारने के कारण गुरु तेगबहादुर साहिब को 11 नवंबर 1675 में शहीद कर दिया। इसके बाद वैसाखी वाले दिन 28 मार्च 1676 को गोबिंद सिंह सिखों के दसवें गुरु घोषित हुए। माता-पिता से मिले संस्कारों ने गुरु साहिब को बचपन में ही दूरदर्शी बना दिया। उनके बचपन का नाम गोविंद राय था। पटना में जिस घर में उनका जन्म हुआ था। और जिसमें उन्होंने अपने जीवन के प्रथम चार वर्ष बिताए थे, वहीं पर अब तख्त श्री पटना साहिब स्थित है। 1670 में उनका परिवार पंजाब आ गया। मार्च 1672 में उनका परिवार हिमालय की शिवालिक पहाड़ियों में स्थित चक्क नानकी नामक स्थान पर आ गया। यह स्थान मौजूदा समय में आनंद पुर साहिब कहलाता है।
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1699 में बैसाखी के दिन की खालसा पंथ की स्थापना
समाज में हो रहे मुगलों के अत्याचारों से लोहा लेने के लिए बैसाखी के दिन खालसा पंथ की स्थापना की। खालसा पंथ की स्थापना के लिए लड़ने मरने के लिए आगे आने वालों को उन्होंने पंज प्यारे या पहले खालसा का नाम दिया। छठवां खालसा बनने के बाद उनका नाम गुरु गोबिंद राय से गुरु गोबिंद सिंह हो गया। उन्होंने मुगलों के साथ अपने जीवन में कुल 14 युद्ध लड़े। धर्म की स्थापना के लिए अपने समूचे परिवार का बलिदान दे दिया।
भक्ति और शक्ति का अद्वितीय संगम
गुरु गोविंद सिंह को भक्ति और शक्ति का अद्वितीय संगम कहा जाए, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। संस्कृत, फारसी सहित कई अन्य भाषाओं के ज्ञाता गुरु साहिब एक महान लेखक थे। कई ग्रंथों की रचना करने वाले गुरु साहिब विद्वानों के संरक्षक थे। गुरू साहिब ने सिखों के पवित्र ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब को पूरा कर अपने बाद गुरु रूप में सुशोभित किया। बिचित्र नाटक को गुरु साहिब की आत्मकथा माना जाता है। यह आत्मकथा उनके जीवन के विषय में जानकारी का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत है। यह दशम ग्रंथ का एक भाग है। उनके दरबार में 52 कवियों तथा लेखकों की उपस्थिति रहती थी। इसी कारण उन्हें संत सिपाही भी कहा जाता था। वे भक्ति तथा शक्ति के अद्वितीय संगम थे। चंडी दी वार उनकी अनुपम कृति में से एक है। सात अक्टूबर 1708 में गुरु गोबिंद सिंह जी नांदेड साहिब में ज्योति में लीन हो गए।
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प्रदीप शाही