भारतीय इतिहास के पन्नों में 1857 का साल एक असफल क्रांति के रूप में दर्ज है। वहीं उत्तर प्रदेश का एक ऐसा शहर है जो इस विद्रोह का साक्षी है। हम बात कर रहे हैं उत्तर प्रदेश के शहर ‘गोरखपुर’ की । गोरखपुर में एक ऐसा मंदिर मौजूद है जिसमें 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से पहले कई अंग्रज़ों की बलि चढ़ाई गई थी और इन अंग्रेज़ों की बलि चढ़ाने वाले माता के भक्त बाबू बंधु सिंह को अंग्रेज़ सरकार द्वारा फांसी दे दी गई थी। यह मंदिर ‘तरकुलहा देवी’ के नाम से प्रसिद्ध है।
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तरकुलहा देवी मंदिर
गोरखपुर से बीस किलोमीटर की दूरी पर स्थित गांव देवीपुर में स्थित है माता तरकुलहा देवी मंदिर। ताड़ के पेड़ को तरकुल का पेड़ भी कहा जाता है। इस पेड़ के नीचे स्थापित होने के कारण ही इसे देवी को तरकुलहा देवी के नाम से जाना जाता है। चैरा-चैरी नामक स्थान से यह मंदिर 5 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
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बाबू बंधु सिंह ने चढ़ाई थी अंग्रेज़ों की बलि
1857 के स्वतंत्रता संग्राम के पहले इस स्थान पर एक घना जंगल हुआ करता था। इस जंगल में डुमरी रियासत के बाबू बंधु सिंह रहते थे। उन्होंने एक पेड़ के नीचे माता की पिंडियां स्थापित की थी और पूजा अर्चना करते थे। कहा जाता है कि देवी तरकुलहा इनकी इष्ट देवी थी। उस समय अंग्रेजों का शासन था और अंग्रेज़ों के खिलाफ बाबू बंधु सिंह के दिल में आग जल रही थी । गुरिल्ला युद्ध में माहिर होने के कारण बाबू बंधु सिंह उस रास्ते से गुज़रने वाले हर अंग्रेज़ का सिर काटकर माता को भेंट कर देते थे। इस दौरान उन्होंने कई अंग्रेज़ों की बलि माता को चढ़ा दी थी। जब अंग्रेज़ों को पता चला कि बंधु सिंह ही अंग्रेज़ों को अपना शिकार बना रहे हैं तो अंग्रेज़ उनकी तलाश में जुट गए लेकिन बंधु सिंह उनके हाथ नहीं आए। आखिर किसी मुखबर की सूचना पर बंधु सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया और फांसी की सज़ा सुनाई गई।
6 बार की गई फांसी की असफल कोशिश
बाबू बंधु सिंह को गोरखपुर में 12 अगस्त 1857 को चैराहे में फांसी पर लटकाया गया था। अंग्रेज़ों ने बंधु सिंह को छह बार फांसी लगाने की कोशिश की लेकिन वह हर बार असफल रहे। इसके बाद बंधु सिंह ने देवी से प्रार्थना की और अंग्रेज़ सातवीं बार में उन्हें फांसी पर चढ़ाने में सफल हुए। कहा जाता है कि जिस तरकुल के पेड़ के नीचे पिंडियां स्थापित थी उस पेड़ का एक हिस्सा टूट कर गिर गया और खून की धारा बहने लगी । इसके बाद यह स्थान तरकुलहा देवी के नाम से प्रसिद्ध हो गया।
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बकरे की चढ़ती है बलि
इस मंदिर में बाबू बंधु सिंह द्वारा शुरू की गई बलि चढ़ाने की प्रथा आज भी जारी है लेकिन तब वह अंग्रेज़ों की बलि चढ़ाया करते थे लेकिन अब इस मंदिर में बकरे की बलि चढ़ाने की परंपरा है। मन्नत पूरी होने पर इस मंदिर में बकरे की बलि चढ़ाई जाती है। इससे भी विशेष बात यह है कि उस बकरे के मांस को वहीं पर मिट्टी के बर्तन में पकाया जाता है और बाद में प्रसाद के रूप में ग्रहण भी किया जाता है।
मनोकामना पूरी होने पर भक्त बांधते हैं घंटी
इस प्रसिद्ध मंदिर में देश-विदेश से असंख्य श्रद्धालु आते हैं। दूर-दूर से आने वाले भक्त यहां पर मन्नतें मांगते हैं। मन्नत पूरी होने के बाद भक्तों द्वारा मंदिर में घंटी बांधी जाती है। यह परंपरा कई सालों से चल रही है। मंदिर में असंख्य घंटियां बंधी हुई हैं। यहां आने वाले श्रद्धालु मन्नत पूरी होने पर अपनी क्षमता के हिसाब से माता के दरबार में घंटी बांधते हैं।
चैत्र नवरात्रि में लगता है बड़ा मेला
चैत्र के महीने में आने वाले नवरात्रों में इस मंदिर में विशाल मेला लगता है। खास बात यह है कि यह मेला रामनवमी वाले दिन शुरू होता है और पूरा एक महीना चलता है। इस मेले में देश-विदेश से श्रद्धालु माता का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए आते हैं।
धर्मेन्द्र संधू