आखिर इसे क्यों माना जाता है 52वां शक्ति पीठ

-इस स्थान पर गिरे थे देवी सती के पावन दंत
भारत में मौजूद शक्ति पीठ भारत वासियों के लिए श्रद्धा व आस्था का मुख्य केन्द्र हैं। देवी पुराण में 51 शक्ति पीठ बताए गए हैं। पौराणिक कथा के अनुसार जिस-जिस स्थान पर देवी सती के शरीर के पावन अंग गिरे थे वह सभी स्थान शक्ति पीठ कहलाते हैं, लेकिन आज हम आपको 52वें शक्ति पीठ के बारे में बताने जा रहे हैं। यह शक्ति पीठ 52वां शक्ति पीठ कहलाता है। इस पावन स्थान पर देवी सती के पावन दंत गिरे थे, इस स्थान पर दंतेश्वरी माता मंदिर स्थापित है। तंत्रचूड़ामणि में शक्ति पीठों की संख्या 52 बताई गई है। हालांकि दन्तेवाड़ा के माता दंतेश्वरी मंदिर को 51 शक्ति पीठों में शामिल नहीं किया गया फिर भी इस मंदिर को 52वां शक्ति पीठ माना जाता है।इसे भी पढ़ें…मंदिर के प्रवेश द्वार पर ही घंटी घडियाल क्यों लगाया जाता है
दंतेश्वरी माता मंदिर
छत्तीसगढ़ के बस्तर में स्थित यह मंदिर एक प्रसिद्ध शक्ति पीठ है। दक्षिण भारतीय वास्तुकला से निर्मित इस मंदिर का निर्माण 14वीं शताब्दी में चालुक्य राजाओं ने करवाया था। मान्यता है कि इस स्थान पर देवी सती के दांत गिरे थे। 32 मोटे खंभों पर टिका यह मंदिर दंतेवाड़ा में स्थित है।
मंदिर में स्थापित है अदभुत स्तंभ
मंदिर के प्रवेश द्वार के सामने एक स्तंभ मौजूद है जिसे गरूड़ स्तंभ कहा जाता है, इस स्तंभ को श्रद्धालु अपनी पीठ की ओर से बाहों में भरते हैं। कहा जाता है कि अगर यह स्तंभ उस श्रद्धालु की बाहों में पूरा समा जाता है तो उसकी मनोकामना जरूर पूरी होती है।
इस स्थान पर गिरे थे देवी सती के पावन दांत
इस मंदिर को 52वां शक्ति पीठ माना जाता है। प्राचीन कथा के अनुसार इस स्थान पर देवी सती के पावन दांत गिरे थे इस लिए इस शक्ति पीठ को दंतेश्वरी माता के नाम से जाना जाता है। दंतेश्वरी माता स्थानीय लोगों की आराध्य देवी है। यह मंदिर डंकिनी और शंकिनी नदियों के संगम पर स्थित है।

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माता की अदभुत मूर्ति है स्थापित
इस मंदिर में दंतेश्वरी माता की अदभुत मूर्ति स्थापित है। षष्टभुजी यह मूर्ति काले रंग की है। छह भुजाओं वाली इस अदभुत मूर्ति में माता के दाएं हाथों में शंख, खड़ग और त्रिशूल है तथा बाएं हाथों में घंटी ,पद्य और राक्षस के बाल हैं। इस मंदिर में माता के चरण चिह्न भी स्थापित हैं।
मंदिर की स्थापना से जुड़ी कथा
एक पौराणिक कथा के अनुसार दंतेश्वरी माता काकतीय वंश के राजा अन्नम देव और बस्तर राज परिवार की कुल देवी है। कहा जाता है कि जब राजा अन्नम देव माता के दर्शन करने आए थे तब माता ने उन्हें दर्शन देकर वरदान भी दिया था कि जहां तक वह राजा जाएगा उस स्थान तक देवी स्वयं साथ चलेगी और वहां तक उस राजा का राज्य होगा। लेकिन साथ ही देवी ने राजा के सामने एक शर्त भी रखी कि वह पीछे मुड़कर नहीं देखेगा। इसके बाद राजा कई दिनों तक बस्तर के इलाके में चलता रहा एक दिन वह शंकिनी -डंकिनी नदी के पास पहुंचा तो राजा को पीछे से देवी की पायल की आवाज़ सुनाई नहीं दी। इस पर राजा ने पीछे मुड़कर देखा तो देवी वहीं रुक गई। इस पर देवी ने कहा कि मैंने जो शर्त रखी थी वह अब टूट गई है। देवी ने राजा को एक वस्त्र दिया और कहा कि जितनी भूमि इस वस्त्र से ढक जाएगी वह तुम्हारे राज्य का हिस्सा होगा। राजा के वस्त्र फैलाने पर जितना इलाका ढका गया वह बस्तर कहलाया। बाद में राजा ने उसी स्थान पर मंदिर का निर्माण करवाया।

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आदिवासी भी आते हैं माता के दर्शन करने
इस प्रदेश में दशहरा बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। ‘बस्तर दशहरा’ के नाम से प्रसिद्ध इस उत्सव में अन्य भक्तों के साथ-साथ आदिवासी भी माता के दर्शनों के लिए आते हैं। इस अवसर पर माता दंतेश्वरी की डोली और छत्र के साथ श्रद्धा और उत्साह के साथ शोभा यात्रा निकलती है।
दशहरे के अलावा फाल्गुन में मड़ई उत्सव का आयोजन भी किया जाता है। नौ दिन तक चलने वाले इस उत्सव में आदिवासी संस्कृति की झलक दिखाई देती है। इस दौरान आदिवासी समुदाय द्वारा अलग-अलग रस्में निभाई जाती हैं। इस उत्सव के अंतिम दिन आयेजित होने वाले सामूहिक नृत्य में बड़ी संख्या में युवक-युवतियां हिस्सा लेते हैं।
धर्मेन्द्र संधू

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