-आखिर क्यों दिया था, अप्सरा उर्वशी ने वीर अर्जुन को श्राप
प्रदीप शाही
यह पूर्णतौर से सत्य है कि आहत मन से दिया गया श्राप हमेशा फलित होता है। इतिहास पर नजर डालें तो श्राप मिलने से कई बार समूचा वंश तक समाप्त हो गया। श्राप से कभी किसी का भला नहीं हुआ है। परंतु एक श्राप ऐसा भी रहा है, जिससे सामने का नुकसान नहीं बल्कि भला हुआ। यह श्राप स्वर्ग सुंदरी अप्सरा उर्वशी की ओर से महाभारत काल में वीर अर्जुन को दिय़ा था। अप्सरा उर्वशी द्वारा वीर अर्जुन को दिया गया श्राप अर्जुन के लिए अज्ञातवास में एक वरदान बन साबित हुआ। आखिर क्या था अप्सरा उर्वशी द्वारा अर्जुन को दिया गया श्राप।
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अप्सरा उर्वशी ने वीर अर्जुन को क्यों दिया था श्राप
महाभारत में पांच पांडवों में युधिष्ठिर, भीम, नकुल व सहदेव में धनुर्धारी अर्जुन तीसरे नंबर पर आते थे। कहा जाता है कि सभी पांडवों में किसी न किसी देव का अंश समाहित था। परंतु वीर अर्जुन, देवराज इंद्र के धर्मपुत्र थे। एक बार देवराज इंद्र के निमंत्रण पर अर्जुन देव लोक में पहुंचे। वहां पर अर्जुन के तेज व रुप को देखकर देव लोक की नर्तकी अप्सरा उर्वशी मोहित हो गई। अप्सरा उर्वशी के मन में अर्जुन के प्रति उपजे प्रेमभाव को देखते हुए देवराज इंद्र ने अप्सरा उर्वशी को अपने धर्मपुत्र अर्जुन के कक्ष में भेज दिया। अप्सरा उर्वशी जैसे ही अर्जुन के कक्ष में पहुंची तो वीर अर्जुन अपने आसन से एकदम खड़े हो गए। औऱ अप्सरा उर्वशी का हाथ जोड़ कर अभिवादन किया। अभिवादन करने के साथ ही अर्जुन ने अप्सरा उर्वशी को कुरुमाता कह कर संबोधित किया। गौर हो एक समय था जब अप्सरा कुरु राजवंश के पूर्वज राजा पुरुरावस की धर्मपत्नी हुआ करती थी। अप्सरा उर्वशी अपने आप को माता का संबोधन सुन कर गुस्से से भर गई। गुस्से में भरी अप्सरा उर्वशी ने वीर अर्जुन को भविष्य में अपना सारा जीवन एक किन्नर की भांति व्यतीत करने का श्राप दे डाला। जो भविष्य में अपना जीवन यापन करने के लिए केवल गीत, संगीत और गायन पर ही आश्रित रहेगा। साथ ही इस दौरान उसका पुरुषत्व हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगा। जब इस श्राप के बारे देवराज इंद्र को पता चला तो उन्होंने अप्सरा उर्वशी से श्राप की अवधि को कम करने के लिए कहा। तब अप्सरा उर्वशी ने अपने श्राप की अवधि को कम कर एक साल कर दिया। यह श्राप पांडवों के अज्ञातवास के 13वें वर्ष में जाकर शुरु होगा।
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पांडवों के बनवास दौरान अज्ञातवर्ष में श्राप बना वरदान
कौरवों संग जुए में मिली हार के बाद पांडवों को 12 साल का बनवास और एक साल का अज्ञातवास मिला। शर्त के अनुसार अज्ञातवास दौरान यदि पांडवों की कोई भी जानकारी कौरवों को मिल जाती तो पांडवों को एक बार फिर से 12 वर्ष के बनवास और एक साल के अज्ञातवास पर जाना पड़ता। पांडवों ने बनवास के बाद एक साल के कठिन अज्ञातवास की अवधि महाराजा विराट के राज्य विराट नगर में सफलतापूर्वक व्यतीत की। सभी पांडवो ने अपनी पहचान को छिपाने के लिए राज्य में विभिन्न कार्यों को अपनाया। पांडवों में ज्येष्ठ भ्राता युधिष्ठर ने महाराजा विराट की सभा में कंक नामक ब्राह्मण के रुप में द्युत (जुआ) का खेल सिखाने का कार्यभार संभाला। वहीं महाबली भीम ने राज्य में बल्लभ नामक रसोईए का रुप धर के शाही भोजनालय में भोजन बनाने का काम संभाला। जबकि धनुर्धारी अर्जुन, अप्सरा उर्वशी से एक वर्ष की अवधि के लिए मिले श्राप के कारण किन्नर बन गए थे। ऐसे में अर्जुन ने महाराजा विराट की बेटी को बृहन्नला के भेष में नृत्य, संगीत की शिक्षा प्रदान करनी शुरु कर दी। वहीं दूसरी तरफ पांडव नकुल ने ग्रंथिक के नाम से महाराजा के अस्तबल में घोड़ों की देखभाल और पांडव सहदेव ने तंतिपाल के नाम से गौशाला में गायों की सेवा करने का काम संभाला। जबकि द्रोपदी ने महाराजा विराट की महारानी सुदेशना के पास सैंर्धी नाम से महारानी के केशसज्जा का कार्यभार संभाला। इस तरह से पांचों पांडवों ने सहजता से अपने अज्ञातवास के एक साल को सफलता से पूरा किया। ऐसे में वीर अर्जुन को अप्सरा उर्वशी से मिला श्राप एक वरदान साबित हुआ।