प्रदीप शाही
-पुराणों में सप्तर्षियों की अलग-अलग नामावली का है उल्लेख
भारत के महान ऋषियों के ज्ञान समक्ष समूचा विश्व सदियों से नतमस्तक रहा है। उनके ज्ञान की महानता को देखते हुए ही नभ में विचरने वाले सात तारों के मंडल को सप्तर्षियों का नाम प्रदान किया गया। सदियों से इस तारा मंडल की पहचान सप्तर्षियों के नाम से ही चल रही है। सबसे खास बात यह है कि वेदों में उक्त तारा मंडल की स्थिति, गति, दूरी व विस्तार की समूची जानकारी का उल्लेख है। पुराणों में सप्तर्षियों के नाम की दो नामावली का उल्लेख मिलता है। जबकि कश्यप और वशिष्ठ ऋषि का उल्लेख दोनों नामावली में दर्ज है। सप्तर्षि शब्द सुनते ही हमारी कल्पना आकाश के तारामंडलों पर टिक जाती है।
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पुराणों में दर्ज है सप्तर्षियों की अलग-अलग नामावली
ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद इन चारों वेदों में हमारे ऋषियों मुनियों का अथाह ज्ञान समाया हुआ है। चारों वेदों में करीब बीस हजार मंत्र है। जबकि अकेले ऋग्वेद में लगभग एक हजार सूक्त हैं। और लगभग दस हजार मंत्र हैं। सभी वेदों में सात ऋषि ऐसे हैं। जिनके कुलों के ऋषियों ने अपना अहम योगदान दिया। वेदों में कुल सात ऋषियों या ऋषि कुल के नामों की जानकारी मिलती है। इन सप्तर्षियों की पुराणों में अलग-अलग नामावली का उल्लेख मिलता है। एक नामावली में ऋषि वशिष्ठ, ऋषि विश्वामित्र, ऋषि कण्व, ऋषि भारद्वाज, ऋषि अत्रि, ऋषि वामदेव और ऋषि शौनक के नाम प्रमुख हैं। जबकि विष्णु पुराण में इस श्लोक वशिष्ठकाश्यपो यात्रिर्जमदग्निस्सगौत। विश्वामित्रभारद्वजौ सप्त सप्तर्षयोभवन्।। का उल्लेख है। श्लोक अनुसार सातवें मन्वन्तर में वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भारद्वाज सप्तर्षि के नाम शामिल है। जबकि अन्य पुराणों अनुसार क्रतु, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरा, वशिष्ट तथा मारीचि सप्तर्षि के बारे भी जानकारी मिलती है।
इतना ही नहीं महाभारत में भी सप्तर्षियों की दो नामावलियां का उल्लेख हैं। एक नामावली में ऋषि कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और वशिष्ठ के नाम आते हैं। जबकि दूसरी नामावली में ऋषि कश्यप और ऋषि वशिष्ठ के अलावा अन्य ऋषियों के नाम बदल गए हैं। अन्य ऋषियों के नाम मरीचि, अंगिरस, पुलस्त्य, पुलह और क्रतु हैं। कई पुराणों में कश्यप और मरीचि, कश्यप और कण्व को एक ही ऋषि माना गया है।
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सप्तर्षियों की विस्तार से जानकारी…
ऋषि वशिष्ठ
सप्तर्षियों में प्रमुख ऋषि वशिष्ठ राजा दशरथ के कुलगुरु थे। ऋषि वशिष्ठ राजा दशरथ के चारों पुत्रों राम, लक्ष्मण, भरत औऱ शत्रुघन के गुरु थे। ऋषि वशिष्ठ के कहने पर ही राजा दशरथ ने अपने सभी पुत्रों को ऋषि विश्वामित्र संग उनके आश्रम में राक्षसों का वध करने के लिए भेजा था। सबसे खास बात यह है कि कामधेनु गाय के लिए ऋषि वशिष्ठ और ऋषि विश्वामित्र में युद्ध भी हुआ था। गौर हो ऋषि वशिष्ठ के कुल के ऋषि मैत्रावरूण वशिष्ठ ने सरस्वती नदी के तट पर सौ सूक्त एक साथ रचकर नया इतिहास रचा था।
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ऋषि विश्वामित्र
कहा जाता है कि ऋषि होने के पूर्व विश्वामित्र एक राजा थे। ऋषि वशिष्ठ से कामधेनु गाय को हड़पने के लिए उन्होंने ऋषि से युद्ध किया। इस युद्ध में विश्वामित्र हार गए। इस हार ने ही उन्हें घोर तपस्या के लिए प्रेरित किया। विश्वामित्र की कठोर तपस्या को देखते हुए। देवताओं ने अप्सरा मेनका को उनकी तपस्या भंग करने के लिए भेजा था। विश्वामित्र ने अपनी तपस्या के बल पर ही त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेज दिया था। यह भी कहा जाता है कि हरिद्वार में जिस स्थान पर आज जहां शांतिकुंज हैं। उसी जगह पर ऋषि विश्वामित्र ने घोर तपस्या की। साथ ही देवराज इंद्र से आहत होकर एक नए स्वर्ग लोक की रचना कर दी थी। इतना ही नहीं ऋषि विश्वामित्र ने ही भारत को ऋचा बनाने की जानकारी दी और गायत्री मन्त्र की रचना भी की।
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महर्षि कण्व
कहा जाता है कि महर्षि कण्व वैदिक काल के महान ऋषियों में से एक थे। महर्षि कण्व के आश्रम में ही हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत की पत्नी शाकुंतला और उनके पुत्र भरत का पालन-पोषण हुआ था। भारत के सबसे महत्वपूर्ण यज्ञ सोमयज्ञ को कण्वों ने ही व्यवस्थित किया। 103 सूक्तवाले ऋग्वेद के आठवें मण्डल के अधिकांश मन्त्र महर्षि कण्व तथा उनके वंशजों तथा गोत्रों द्वारा रचित हैं। सोनभद्र में कैमूर श्रृंखला के शीर्ष पर कण्व महर्षि की तपस्थली मानी जाती है। मौजूदा समय में यह स्थान कंडाकोट नाम से जाना जाता है।
ऋषि भारद्वाज
पिता बृहस्पति और माता ममता की संतान, वैदिक ऋषियों में उच्च माने जाने वाले ऋषि भारद्वाज का जन्म भगवान श्री राम से पहले हुआ था। वनवास के समय श्री राम ऋषि भारद्वाज के आश्रम में गए थे। जो इतिहास में त्रेता-द्वापर का सन्धिकाल माना जाता है। भरद्वाजों के कुल गौत्र में से एक भारद्वाज विदथ ने राजा दुष्यन्त के बेटे भरत का उत्तराधिकारी रहते हुए भी मंत्रों की रचना जारी रखी थी। ऋषि भारद्वाज के पुत्रों में 10 ऋषि ऋग्वेद के मन्त्रदृष्टा रहे। उनकी रात्रि नामक पुत्री, रात्रि सूक्त की मंत्रदृष्टा मानी गई हैं। ॠग्वेद के छठे मंडल के दृष्टा ऋषि भारद्वाज हैं। इस मंडल में ऋषि भारद्वाज के रचित 765 मंत्र हैं। अथर्ववेद में भी ऋषि भारद्वाज के रचित 23 मंत्रों का उल्लेख मिलता है। गौर हो भारद्वाज-स्मृति औऱ भारद्वाज-संहिता की रचना ऋषि भारद्वाज ने ही की थी। ऋषि भारद्वाज ने यन्त्र-सर्वस्व नामक बृहद् ग्रंथ की रचना भी की थी। इस ग्रंथ का कुछ हिस्सा स्वामी ब्रह्ममुनि ने विमान-शास्त्र के नाम से प्रकाशित करवाया है। इस ग्रंथ नीचे व उंचाई में उड़ने वाले विमानों के लिए विविध धातुओं के निर्माण की जानकारी मिलती है।
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ऋषि अत्रि
ऋग्वेद के पंचम मण्डल के द्रष्टा महर्षि अत्रि ब्रह्मा के पुत्र, सोम के पिता और कर्दम प्रजापति व देवहूति की पुत्री अनुसूया के पति थे। अत्रि जब बाहर गए थे तब त्रिदेव अनसूया के घर ब्राह्मण के भेष में भिक्षा मांगने लगे और अनुसूया से कहा कि जब आप अपने संपूर्ण वस्त्र उतार देंगी तभी हम भिक्षा स्वीकार करेंगे, तब अनुसूया ने अपने सतित्व के बल पर उक्त तीनों देवों को अबोध बालक बनाकर उन्हें भिक्षा दी। माता अनुसूया ने देवी सीता को पतिव्रत का उपदेश दिया था।
अत्रि ऋषि ने इस देश में कृषि के विकास में पृथु और ऋषभ की तरह योगदान दिया था। अत्रि लोग ही सिन्धु पार करके पारस (आज का ईरान) चले गए थे, जहां उन्होंने यज्ञ का प्रचार किया। अत्रियों के कारण ही अग्निपूजकों के धर्म पारसी धर्म का सूत्रपात हुआ। अत्रि ऋषि का आश्रम चित्रकूट में था। मान्यता है कि अत्रि-दम्पति की तपस्या और त्रिदेवों की प्रसन्नता के फलस्वरूप विष्णु के अंश से महायोगी दत्तात्रेय, ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा तथा शंकर के अंश से महामुनि दुर्वासा महर्षि अत्रि एवं देवी अनुसूया के पुत्र रूप में जन्मे। ऋषि अत्रि पर अश्विनीकुमारों की भी कृपा थी।
ऋषि वामदेव
सदियों पहले लिखे गए सामवेद में संगीत औऱ वाद्य यंत्रों की समूची जानकारी समाहित है। ऋषि वामदेव ने भारतीयों को अमूल्य भेंट संगीत दिया। ऋषि वामदेव ऋग्वेद के चतुर्थ मंडल के सूत्तदृष्टा गौतम ऋषि के पुत्र तथा जन्मत्रयी के तत्ववेत्ता कहे जाते है। भरत मुनि द्वारा रचित नाट्य शास्त्र सामवेद से ही प्रेरित है। कहा जाता है कि वामदेव जब अपनी माता के गर्भ में थे, तभी से उन्हें अपने पूर्वजन्म आदि का ज्ञान हो गया था। उन्होंने सोचा, मां की योनि से तो सभी जन्म लेते हैं। और यह बेहद कष्टकर है। ऐसे में उन्हें मां का पेट फाड़ कर बाहर निकलना चाहिए। वामदेव की माता को इसका पूर्वाभास हो गया था। ऐसे में वामदेव की माता ने अपने जीवन पर आए संकट का भान करते हुए देवी अदिति से रक्षा की गुहार लगाई। तब वामदेव ने इंद्र को अपने समस्त ज्ञान का परिचय देकर योग से श्येन पक्षी (चील) का रूप धारण किया। और अपनी माता के गर्भ से बिना कष्ट दिए बाहर निकल गए।
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ऋषि शौनक
भारत में गुरुकुल की स्थापना करने का श्रेय ऋषि शौनक के नाम जाता है। ऋषि शौनक ने सबसे पहले दस हजार विद्यार्थियों के लिए गुरुकुल की शुरुआत कर कुलपति (चांसलर) बनने का सम्मान हासिल किया। किसी ऋषि के तौर पर ऐसा सम्मान हासिल करने वाले वह पहले ऋषि थे। गौर हो वैदिक आचार्य और ऋषि शौनक, ऋषि शुनक के बेटे थे। गौर हो सप्तर्षियों में शामिल ऋषि वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भरद्वाज, अत्रि, वामदेव और शौनक। वह महान ऋषि थे, जिन्होंने ज्ञान विज्ञान में अपना अहम रोल अदा किया है।