सिर ढंकने की परंपरा का क्या है महत्व…

-सदियों से जारी है यह परंपरा

प्रदीप शाही

भारतीय सभ्यता बेहद प्राचीन है। यह प्राचीन सभ्यता अपने दामन में न जाने कितने अनमोल रहस्यों और परंपराओं को संभाले हुए हैं। इन में से अधिकतर रहस्यों से मौजूदा समय का समाज भी अनभिज्ञ है। हमारी कई परंपराएं जो सदियों पहले शुरु की गई थी। वह आज देश के कई हिस्सों में आज भी प्रचलित हैं। चाहे इन परंपराओं में कुछ बदलाव आ गए हैं। परंतु हमारा समाज इन परंपराओं के महत्व को समझते हुए इसे संभाले हुए हैं। आईए, आज आपको सिर ढंकने की परंपरा से अवगत करवाते हैं। सदियों पहले पगड़ी बांधने की परंपरा भी सिर ढंकने की परंपरा का ही एक हिस्सा है।

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हिंदू धर्म की देन है सिर ढंकने की परंपरा

सिर ढंकने की परंपरा को हिंदू धर्म की देन माना जाता है। देश के विभिन्न राज्यों में सिर ढंकने का रिवाज अलग-अलग रहा था और जो आज भी है। प्राचीन काल में महिलाएं हो या पुरुष सभी के सिर ढंकने का रिवाज कायम था। वहीं महिलाएं सिर पर ओढनी या पल्लू डालकर रहती थी। यह परंपरा आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक होती है। जबकि शहरों में यह रिवाज किसी धार्मिक समागम के दौरान सहजता से देखा जा सकता है। वहीं मंदिरों में तो आज भी सिर को ढंक कर जाने की परंपरा कायम है। भारत में राजस्थान, मालवा क्षेत्र में सिर पर पगड़ी या साफा पहने का रिवाज आज भी कायम है।

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सिर, शरीर का सबसे संवेदनशील अंग

सिर इंसान का सबसे संवेदनशील अंग माना गया है। यही कारण है कि सिर पर लगी चोट सबसे घातक हो जाती है। क्योंकि सिर के मध्य में सहस्रार चक्र होता है। सिर पर किटाणूओं की मार भी अधिक इस लिए भी हो जाती है। क्योंकि हमारे बालों में चुंबकीय शक्ति सबसे अधिक होती है। इसी कारण सिर में रोग फैलाने वाले किटाणू भी अधिक पायए जाते हैं। आसमान की विद्युत तरंगे भी खुले सिल वालों के शरीर में जल्दी प्रवेश कर जाती है। इस कारण इंसान अधिक बिमार रहता है। इस कारण सिर दर्द, आंखों की कमजोरी भी बढ़ जाती है। इन्हीं कारणों के चलते ही हमारे ऋषियों, मुनियों ने सिर पर पगड़ी, साफा बांधने और सिर को हमेशा ढंकने की परंपरा को शुरु किया था। मौजूदा समय में सिर पर हैल्मेट पहनना भी इस रिवाज का एक हिस्सा है। जबकि जंग के दौरान सिर पर टोप पहनने की परंपरा पहले भी थी जो आज भी जारी है।

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सिर को ढंकना या पगड़ी पहनने का धार्मिक महत्व

हिंदू धर्म अनुसार इंसान के शरीर में 10 द्वार (दो कान, दो नाक, दो आंखे, एक मुंह, दो गुप्तांग और सिर के मध्य सहस्रार चक्र) होते हैं। सिर के मध्य में सहस्रार चक्र (आत्मिक उर्जा का स्थान) होता है। इस सहस्रार चक्र से ही परमात्मा के मिलन की राह मिलती है। यही कारण है कि धार्मिक स्थान पर सिर पर पगड़ी पहनना या सिर ढंकना अनिवार्य माना गया है। क्योंकि सिर के मध्य स्थापित सहस्रार चक्र के ढंकने के कारण मन एकाग्र रहता है।

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पगड़ी को माना जाता है इज्जत, सम्मान का सूचक

प्राचीन काल में पगड़ी को पहना जाना इज्जत, सम्मान का सूचक माना जाता था। अपने से बड़े या सम्मानित आदमी की उसकी पगड़ी से ही पहचान होती थी। राजाओं के सिर पर ताज या मुकुट सम्मान का प्रतीक माने जाते थे। प्राचीन काल हो या मौजूदा समय आज भी मांगलिक और सभी धार्मिक कार्यों में सिर साफा बांधे जाने का प्रचलन अनवरत जारी है। इस रस्मोरिवाज में हमारी संस्कृति की झलक, एक दूसरे का सम्मान साफ झलकता है। विवाह के दौरान लड़का हो या लड़की इन दोनों पक्ष के प्रमुख लोग आज भी साफा पहनते हैं। ताकि इनकी पहचान विशेष रहे। दुल्हे के सिर पर कलगी लगी पगड़ी पहनने का रिवाज भारत में हर जगह आज भी प्रचलित है।

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भारत के किन राज्यों में आज भी कायम है यह परंपरा

भारत के पंजाब, महाराष्ट, गुजरात, तमिलनाडु और हरियाणा में यह परंपरा कायम है। पर सभी राज्यों में साफा बांधने की परंपरा का अंदाज बेहद निराला है। पंजाब में रहने वाले सिखों की ओर से हर समय से दस्तार बांधने की परंपरा दशम पिता गुरु गोविंद सिंह की ओर से खालसा सृजन के बाद अनवरत जारी है। जबकि साधु संतों की ओर से सिर पर पगड़ी, साफा पहनने की परंपरा सदियों से जारी है। जो आज भी कायम है। राजस्थान में जो साफा बांधा जाता है। उसे पगड़ी या फेटा भी कहा जाता है। राजस्थान के राजपूत समाज में साफों के अलग-अलग रंगों व बांधने की परंपरा है। किसी भी जंग के समय राजपूताना सैनिक केवल केसरिया साफा ही पहनते थे। क्योंकि केसरिया रंग का साफा शौर्य का प्रतीक माना गया है। आम दिनों में राजपूताना समुदाय के बुजुर्ग खाकी रंग का गोल साफा ही पहनते हैं। जबकि अन्य समारोहों में पचरंगा,  लहरिया जैसे रंग-बिरंगे साफे बांधे जाते हैं। राजस्थान में सफेद रंग का साफा बांधना शोक का संदेश देता है। वहीं मारवाड़ी समुदाय के लोगों की ओर से पहने जाने वाला साफा काफी हद तक राजस्थानी परंपरा के नजदीक है। प्राचीन काल में मुगलों ने भी पंजाबी, पठानी और अफगानी स्टाइल के साफे को अपनाया था।

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भारत में टोपी पहनने की भी है परंपरा

भारत में टोपी पहनने की परंपरा भी प्रचलित है। इसमें गांधी टोपी प्रमुख माना गई है। जबकि सच यह है कि महात्मा गांधी ने कभी भी टोपी नहीं पहनी थी। महाराष्ट्र में टोपी पहनना आम बात है। जबकि मुस्लिम समुदाय में हर समय सिर को एक विशेष स्टाइल की टोपी पहनने की परंपरा कायम है। भारत में हिमाचली, तमिल, मणिपुरी, पठानी, हैदराबादी टोपी का अंदाज विशेष है। भारत के पड़ोसी देश नेपाल में पहने जाने वाली टोपी की अपनी ही खास पहचान है। इसके विश्व के कई देशों में रहने वाले लोगों में हैट पहनने का भी खास तौर से शौक पाया जाता है।

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