-इस मंदिर में माता ने तोड़ा था मुगल सम्राट अकबर का अहंकार
-सदियों से जल रही माता के मंदिर में पावन ज्वाला
ज्वाला जी, ज्वालामुखी, जोतां वाला मंदिर, नगरकोट के नाम से विख्यात मंदिर को खोजने का श्रेय पांडवों का जाता है। माता ने इस मंदिर में ही मुगल सम्राट अकबर का अहंकार तोड़ा था। ज्वाला जी के मंदिर में माता के विद्यमान नौ ज्योति स्वरुप मस्तक निवाने वाले भक्तों की हर मनोकामना को पूर्ण करते हैं। देश के कोने-कोने में होने वाले माता के जागरण में माता की ज्योति प्रचंड करने के लिए इसी मंदिर से ज्योति को ले जाने की परंपरा लंबे समय से कायम है। गौर हो मंदिर का गुंबद पूर्ण तौर से स्वर्ण मंडित है।
कहां स्थित है माता ज्वाला जी का मंदिर
हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा में स्थित ज्वाला जी मंदिर माता के 51 शक्ति पीठ में से एक है। पांडवों द्वारा खोजे गए इस मंदिर में ही माता सती की जीभ गिरी थी। जीभ गिरने के बाद माता ज्योति रुप में समा गई। माता के मंदिर के भीतर माता नौ ज्योति स्वरुप में विद्यमान हैं। जिन्हें महाकाली, अन्नपूर्णा, चंडी, हिंगलाज, विंध्यावासनी, महालक्ष्मी, सरस्वती, अम्बिका, अंजी देवी के नाम से पुकारा जाता है।
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माता ज्वाला जी की उत्पत्ति कथा
ज्वालामुखी मंदिर शक्ति पीठ मंदिरों में से एक है। पूरे भारतवर्ष में कुल 51 शक्तिपीठ है। जिन सभी की उत्पत्ति कथा एक ही है। यह सभी मंदिर शिव और शक्ति से जुड़े हुऐ है। धार्मिक ग्रंधों अनुसार इन सभी स्थलों पर देवी के अंग गिरे थे। कथा अनुसार शिव के ससुर राजा दक्ष ने यज्ञ का आयोजन किया। जिसमें उन्होंने शिव और सती को आमंत्रित नहीं किया क्योंकि वह शिव को अपने बराबर का नहीं समझते थे। यह बात सती को काफी बुरी लगी और वह बिना बुलाए यज्ञ में पहुंच गयी। यज्ञ स्थल पर भगवान शिव का काफी अपमान किया। जिसे सती सहन न कर सकी। और वह हवन कुण्ड में कूद गई। जब बात भगवान शंकर को पता चली तो वह सती के शरीर को हवन कुण्ड से निकाल कर तांडव करने लगे। इस कारण सारे ब्रह्माण्ड में हाहाकार मच गया। पूरे ब्रह्माण्ड को इस संकट से बचाने के लिए भगवान विष्णु ने सती के शरीर को अपने सुदर्शन चक्र से 51 भागों में बांट दिया। जहां-जहां माता के अंग गिरे वह स्थान शक्ति पीठ बन गए। ज्वाला जी मंदिर में माता ज्योति रुप में साक्षात विराजमान हैं।
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माता ने अकबर के चढाए सोने के छत्र को किया परिवर्तित
ज्वाला जी मंदिर के संबंध में यह कथा प्रचलित है। जब दिल्ली पर मुगल शासक सम्राट अकबर का शासन था। उसी काल में माता का परम भक्त ध्याणू भी हुआ। माता के दर्शन के लिए अपने गांववासियों संग भक्त ध्याणू ज्वाला जी को जाने लगा। दिल्ली के पास बादशाह अकबर के सिपाहियों ने उसे रोक लिया। भक्त ध्याणू को अकबर के दरबार में पेश किया। बादशाह अकबर को जब पता लगा कि ध्याणू ज्वाला माता के दर्शन को जा रहा है। तो उसने पूछा कि तेरी मां में क्या शक्ति है। वह क्या-क्या कर सकती है । तब भक्त ध्याणू ने कहा कि ऐसा कोई भी कार्य नहीं है, जो माता नहीं कर सकती है। अकबर ने परीक्षा लेने के लिए ध्याणू के घोड़े का सर कटवा दिया। और कहा कि अगर तेरी मां में शक्ति है, तो वह घोड़े के सर को जोड़कर उसे जीवित कर दें। यह सुन भक्त ध्याणू देवी ने माता की स्तुति कर अपना सिर काट कर माता को भेंट में दे दिया। तब माता ने दोनों के सिरों को जोड़ दिया। इस चमत्कार को देख बादशाह अकबर ने देवी के मंदिर में सोने का छत्र चढ़ाने का फैसला किया। छत्र चढ़ाने से पहले अकबर ने मंदिर में प्रज्जवलित ज्योति को बुझाने के लिए इस नहर का निर्माण किया था। अकबर ने लोहे के बड़े बड़े तवों से मां की ज्योति दबाने और बुझाने की कोशिश की। मगर मां की ये ज्योति इसे पिघलाते हुए बाहर निकल गई थी। माता की ओर से तोड़े गए इस अहंकार के बाद माता को चढ़ाने के लिए लाए छत्र को उसके हाथ से को गिरवा दिया और उसे एक अजीब धातु का बना दिया। इस छत्र की धातु के बारे आज तक कोई नहीं जान सका। यह आज तक एक रहस्य बना है। यह छत्र आज भी मंदिर में मौजूद है। इसके आगे मंदिर का गर्भ द्वार है। जिसके अंदर माता ज्योति के रूप में विराजमान है। थोडा ऊपर की ओर जाने पर गोरखनाथ का मंदिर है जिसे गोरख डिब्बी के नाम से जाना जाता है। इस में एक पानी का एक कुंड है। जो देखने में खौलता हुआ दिखाई देता है। पर वास्तव में एकदम गर्म नहीं है।
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शहनशाह ओरंगजेब का भी माता ने तोड़ा था अहंकार
कहते हैं कि ओरंगजेब ने ज्वाला जी मंदिर को तहस नहस करने की साजिश रची। औरंगजेब ने पहले अपने सैनिकों के इस मंदिर को नष्ट करने के लिए भेजा। मगर अभी सैनिक रास्ते में ही पहुंचे थे कि मां के चमत्कार से मधुमक्खियों ने इन पर हमला बोल दिया। मां के प्रकोप के चलते सभी सैनिकों के जान बचाकर भागना पड़ा। सैनिकों से मिली इस जानकारी के बाद ओरंगजेब ने इस मंदिर में आने की योजना त्याग दी। और वापिस दिल्ली लौट गया।
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मंदिर के प्रमुख पर्व
ज्वाला जी में नवरात्रि के समय में विशाल मेले का आयोजन किया जाता है। साल के दोनों नवरात्रि समागम धूमधाम से मनाए जाते है। इस दौरान अखंड देवी पाठ रखे जाते हैं। वैदिक मंत्रोच्चारण के साथ हवन इत्यादि की जाती है। कुछ भक्त देवी के दर्शन दौरान लाल रंग के ध्वज भी लाते है। मंदिर में आरती के समय अद्भूत नजारा होता है। मंदिर में पांच बार आरती करने की परंपरा है। पहली आरती मंदिर के कपाट खुलते ही सूर्योदय के साथ में की जाती है। दूसरी दोपहर को की जाती है। आरती के साथ-साथ माता को भोग भी लगाया जाता है। फिर संध्या आरती होती है। इसके पश्चात रात्रि आरती होती है। इसके बाद देवी की शयन शय्या को तैयार किया जाता है। उसे फूलों और सुगंधित सामग्रियों से सजाया जाता है। इसके पश्चात देवी की शयन आरती की जाती है जिसमें भारी संख्या में आये श्रद्धालु भाग लेते है।
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प्रदीप शाही