’नदी में पैसे नहीं डालने चाहिए। क्यों?’

    -ख्वाजा को शांत रखने बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में भी दूर स्थान पर जाते समय मांगी जाती है दुआ

    -आईए जानते हैं-अर्थव्यवस्था पर भारी आस्था !

    -आस्था और परंपरा जारी रखने के लिए क्या करें

    हमारे देश में रोज न जाने कितनी रेलगाड़ियाँ, जाने कितनी नदियों को पार करती हैं और उनके यात्रियों द्वारा हर रोज नदियों में सिक्के फेंकने का चलन है! बात पंजाब हरियाणा या उन राज्यों की जाए जहां नहरों का जाल बिछा है, लगभग हर दूसरा तीसरा व्यक्ति शहर से बाहर जाने पर नहर या चलते पानी में सिक्का डाल कर ख्वाजा को मनाने का प्रयास करता है। बाढ़ की मार तले आने वाले क्षेत्रों में सदियों से ख्वाजा को शांत रखने की परंपरा भी चली आ रही है कि जल प्रकोप से चने के लिए चढ़ावा चढ़ाया जाए। बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में भी दूर स्थान पर जाते समय सकुशल लौटने व यात्रा पूरी हाने की दुआएं भी कुछ इसी तरीके से मांगी जाती रही हैं। हालांकि बहुत कम लोगों ने इस पर सवाल किए होंगे, यदि किए भी होंगे तो बड़े बुजुर्गों घर के स्याने बंदों ने चुप करवा दिया होगा।

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    आज हम आपको चुप नहीं करवा रहे हैं, केवल इतना ही बताने का प्रयास कर रहे हैं अगर सिक्का आखिर क्यों डाला जाता है! इसके डालने से क्या लाभ होगा और कौनसा सिक्का जल प्रवाहित करने से लाभ मिलेगा और कौनसे सिक्के बिना कोई फल दिए व्यर्थ चले जाएंगे।

    अगर रोज के सिक्कों के हिसाब से गणना की जाए तो ये रकम कम से कम दहाई के चार अंको को तो पार करती होगी। यानि हर नदी नहर में कुछ हजार रूपये के सिक्के हर रोज जल प्रवाहित हो रहे हैं।

    सोचो इस तरह हर रोज कितनी भारतीय मुद्रा ऐसे फेंक दी जाती है?

    इससे भारतीय अर्थव्यवस्था को कितना नुकसान पहुँचता होगा, ये तो एक अर्थशास्त्री ही बता सकता। लेकिन एक रसायनज्ञ होने के नाते यदि सोचा जाए तो लोगों को सिक्के की धातु के बारे में इतना अवश्य जागरूक किया जा सकता है कि वर्तमान सिक्के 83 प्रतिशत लोहा और 17 प्रतिशत क्रोमियम के बने होते हैं और क्रोमियम एक भारी जहरीली धातु है।

    क्रोमियम दो अवस्था में पाया जाता है, एक क्रोमियम थर्ड और दूसरा क्रोमियम फोर्थ इनमें क्रोमियम थर्ड जीव जगत के लिए घातक होता है। अगर इसकी मात्रा 0.05ः प्रति लीटर से ज्यादा हो जाए तो ऐसा पानी हमारे लिए जहरीला बन जाता है। जो सीधे कैंसर जैसी असाध्य बीमारी को जन्म देता है।

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    सोचो एक नदी जो अपने आप में बहुमूल्य खजाना छुपाए हुए है और हमारे एक-दो रूपये से कैसे उसका भला हो सकता है ?

    अब हम यहां आपको बताते है कि यह चलन क्यों और कब आया सिक्के फेंकने का चलन उन दिनों शुरू हुआ था जब ताँबे के सिक्के हुआ करते थे।

    इसकी भी एक कहानी है प्राचीनकाल में एक बार दूषित पानी से बीमारियाँ फैली थीं, राज के वैद्यों ने पाया कि सारी बीमारियों की जड़ दूषित हो चुका पानी है और पानी का स्रोत केवल राजधानी का तालाब और शहर से गुजरने वाली एकमात्र नदी थी। राजा के ही एक मंत्री ने सुझाव दिया कि जल को ही शुद्ध कर दिया जाए तो सारी बीमारियों का समूल नाश हो जाएगा। लेकिन यह राज्य के खजाने से संभव नहीं था, राजा यह भी चाहता था कि बीमारी कभी उसके राज में ना आए इसके लिए उपाय भी स्थायी होना चाहिए। इस पर योग्य मंत्रियों की सलाह पर राजा ने हर व्यक्ति को अपने आसपास के जल के स्रोत या जलाशयों में ताँबे के सिक्के को फेंकना अनिवार्य कर दिया था और राज्य यसे बाहर जाने या राज्य मं प्रवेश करने वालों पर कानून बना कर जिम्मेदारी तय कर दी गई। क्योंकि ताँबा जल को शुद्ध करने वाली सबसे अच्छी धातु है और इसके पानी को फिल्टर करने वाले प्रभाव भी सदियों तक रहते हैं। लेकिन आजकल सिक्के नदी में फेंकने से हम किसी तरह का उपकार नहीं कर रहे बल्कि जल प्रदूषण और बीमारियों को बढ़ावा ही दे रहे हैं। इसलिए आस्था के नाम पर भारतीय मुद्रा को हो रहे नुकसान को रोकने की जिम्मेदारी हम सब नागरिकों की है।

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    यदि आस्था और परंपरा जारी रखनी है तो तांबे जैसी धातु का प्रयोग करें नदी में प्रवाहित करने के लिए चाहे ना सही स्वयं पीने के पानी का बर्तन अथवा पानी रखने के बर्तन ज्यादा से ज्यादा तांबे के हों यहि बेहतर है।

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