किस भीष्ण प्रतिज्ञा ने, देवव्रत को बनाया भीष्म

-भीष्म पांडवों व कौरवों दोनों के थे पितामह

प्रदीप शाही

सतयुग के बाद त्रेतायुग और इसके बाद द्वापर युग और मौजूदा कलयुग। सभी युगों का अपना-अपना महत्व रहा है। द्वापर युग में हुआ सबसे भयावह युद्ध महाभारत औऱ 18 दिनों तक चलने वाले युद्ध में भगवान श्री कृष्ण जी की ओऱ से अपने प्रिय अर्जुन को कुरुक्षेत्र की धरती पर दिया गीता उपदेश आज भी तर्कसंगत है। द्वापर युग में जन्मे देवव्रत की बात न हो, तो यह मुमकिन ही नहीं है। आखिर किस भीष्ण प्रतिज्ञा ने देवव्रत को भीष्म के नाम से विख्यात कर दिया। वह भीष्म जो पांडवों व कौरवों दोनों के ही पितामह थे। आईए, आपकों इस रहस्य से अवगत करवाएं कि देवव्रत क्यों और कैसे भीष्म बन गए।

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कौन थे देवव्रत ?

पुराणों में दर्ज है कि महाराजा शांतनु की विवाह देवी गंगा से हुआ था। देवी गंगा को नदी के रुप में बहते हुए अपने कर्तव्यों का पालन करना था। इसी कारण देवी गंगा ने महाराजा शांतनु के संग राजमहल में रहने से इंकार कर दिया। महाराजा शांतनु अपनी पत्नी देवी गंगा के इस फैसले को सहन नहीं कर पाए। धीरे-धीरे उनका सांसारिक मोह समाप्त होने लग गया। परंतु एक दिन जब महाराजा शांतनु गंगा तट पर बैठे थे। तभी देवी गंगा प्रकट हुई। देवी गंगा ने एक  नवजात बालक को महाराजा शांतनु की गोद में रख कर इसका पालन करने के लिए कहा। देवी गंगा से प्राप्त हुए बालक को महाराज शांतनु ने अपने पुत्र स्वीकार किया। उस बालक का नामकरण करते हुए देवव्रत नाम दिया। पुत्र देवव्रत को पाकर महाराजा शांतनु एक बार फिर से राजपाठ को सुचारु रुप से चलाने लगे।

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महाराजा शांतनु हुए सत्यवती पर मोहित

समय बितता गया बालक देवव्रत भी धीरे-धीरे बड़ा होने लगा। बालक देवव्रत जैसे-जैसे बड़ा होने लगा। उसी तरह से उस बालक की विलक्ष्ण प्रतिभा सभी को प्रभावित करने लगी। बालक बेहद ओजस्वी था। एक दिन की बात है महाराज शांतनु को एक निषाद कन्या दिखाई दी। बेहद खूबसुरत कन्या का नाम सत्यवती था। महाराजा शांतनु सत्यवती को देखते हुए उस पर मोहित गए। महाराजा शांतनु ने सत्यवती संग विवाह कर उसके साथ जीवन व्यतीत करने का फैसला किया। परंतु रुपवती सत्यवती ने महाराजा शांतनु के शादी के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। सत्यवती के इस फैसले के बाद एक बार फिर महाराजा शांतनु का मन राजपाठ के कामों से उचाट हो गया।

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किस वजह से देवव्रत से कैसे बने भीष्म

पिता की उदासी का कारण जानने के बाद इस समस्या का समाधान करने के लिए देवव्रत,  सत्यवती से मिलने पहुंचे। देवव्रत ने सत्यवती के समक्ष अपने पिता महाराजा शांतनु संग विवाह करने का प्रस्ताव रखा। तो सत्यवती ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार करते हुए। देवव्रत से ही शादी करने का प्रस्ताव रख दिया। सत्यवती ने कहा कि यदि वह महाराज शांतनु से विवाह करेंगी। तो उनकी संतान को तुम्हारा दास बन कर रहना होगा। जो उन्हें कतई मंजूर नहीं। क्योंकि नियमानुसार किसी भी राजा का पहला पुत्र ही सत्ता का अधिकारी होता है। इस दलील को सुनने के बाद देवव्रत ने प्रतिज्ञा ली, कि वो कभी भी शासक नहीं बनेंगे। और जीवन भर शासन करने वाले आदमी के अधीन ही कार्य करते रहेंगे। उस शासक की हर आज्ञा का पालन करते रहेंगे। इस प्रतीज्ञा को सुनने के बाद सत्यवती ने कहा कि यह सब तो उचित है। परंतु तुम्हारे पुत्र औऱ पौत्र तो तुम्हारी इस प्रतिज्ञा को स्वीकार नहीं करेंगे। सत्यवती की इस दलील को सुनने के बाद देवव्रत ने कहा कि वह प्रतिज्ञा करते हैं कि वह आजीवन अविवाहित रहेंगे। इस भीष्ण प्रतिज्ञा के बाद देवव्रत को भीष्म कहा जाने लगा। इस वचन से बंधे होने के कारण भीष्म सारा जीवन ही कौरवों के हर गलत आदेश को स्वीकार करने के लिए विवश रहे। चाहे वह सारी सच्चाई से हमेशा अवगत रहे थे।

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