सोमनाथ मंदिर बाणस्तंभ का रहस्य, साइंस की समझ से परे

-छठी शताब्दी में निर्मित किया था बाणस्तंभ

प्रदीप शाही

हिंदू धर्म के उत्थान औऱ पत्न के इतिहास का प्रतीक गुजरात का सोमनाथ मंदिर जिसे भारत के 12 ज्योतिर्लिंगों में से पहले ज्योतिर्लिंग होने का सौभाग्य प्राप्त है। ऋग्वेद में भी इस मंदिर का उल्लेख मिलता है। इस उल्लेख अनुसार इस मंदिर का निर्माण चंद्र देव ने किया था। विदेशी आक्रमणकारियों की ओर से कई बार मंदिर को तोड़ा औऱ लूटा गया। परंतु सोमनाथ मंदिर का इतिहास आज भी विलक्षण और गौरवशाली है। सोमनाथ मंदिर के प्रांगण में छठी शताब्दी में निर्मित बाणस्तंभ का रहस्य आज भी साइंस के लिए अबूझ पहेली बना हुआ है। बाणस्तंभ पर अंकित संस्कृत का श्लोक भारतीय संस्कृति के अविश्वसनीय विकास को दर्शाता है। आखिर बाणस्तंभ पर क्या अंकित है। आईए, इस रहस्य से आज आपको अवगत करवाते हैं।

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कहां पर स्थित हैं सोमनाथ मंदिर

गुजरात के पश्चिमी छोर पर स्थित सोमनाथ मंदिर स्थापित है। प्राचीन धार्मिक ग्रंथों के मुताबिक सोम यानि कि चंद्र देव ने दक्ष प्रजापति राजा की 27 कन्याओं से शादी की थी। परंतु चंद्र देव सबसे अधिक प्यार अपनी पत्नी रोहिणी से करते थे। अपनी बेटियों से इस अन्याय के कारण प्रजापति दक्ष ने चंद्र देव श्राप दिया कि अब तुम्हार तेज हर दिन कम होता चला जाएगा।आखिर चंद्र ने श्राप के निवारण के लिए प्रभु शिव की अराधना करते हुए सोमनाथ मंदिर की स्थापना की। मंदिर की भव्यता के बारे अरब यात्री अल-बरुनी ने भी अपनी यात्रा में जिक्र किया। महमूद गजनवी ने वर्ष 1024 में मंदिर के भीतर पूजा- अर्चना कर रहे सभी भक्तों को मौत के घाट उतार दिया। मंदिर की तोड़फोड़ कर सभी कीमती सामान को लूट लिया। आखिर मंदिर के तहस नहस होने के बाद राजा भीमदेव ने दोबारा इसका निर्माण करवाया। वर्ष 1297 में दिल्ली के सुलतान अलाऊद्दीन खि़लजी ने गुजरात पर कब्जा कर मंदिर को लूट लिया। इसके बाद वर्ष 1395 ई. में गुजरात के सुल्तान मुजफ्फरशाह ने मंदिर को तहस नहस किया। इसके बाद वर्ष 1413 में अहमदशाह ने सोमनाथ मंदिर में तोड़ फोड़ की। आखिर में मुगल बादशाह औरंगजेब ने इसे दोबारा 1706 में खंडित किया। मंदिर कई बार टूटा और हर बार इसका जीर्णोद्धार हुआ। पंरतु शिवलिंग हमेशा स्थापित रहा।

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मंदिर में स्थापित बाणस्तंभ पर अंकित संस्कृत श्लोक….

सोमनाथ मंदिर के प्रांगण में दिशादर्शक स्तंभ स्थापित है। जिस पर समुद्र की तरफ इशारा करता एक बाण है। इसीलिए इसे बाणस्तंभ कहते हैं। इस बाणस्तंभ पर संस्कृत भाषा में- ‘आसमुद्रांत दक्षिण ध्रुव पर्यंत, अबाधित ज्योर्तिमार्ग।’ वाक्य उकेरे हुए हैं। इस वाक्य का मतलब इस समुद्र के अंत तक से दक्षिण ध्रुव पर्यंत तक बिना अवरोध का ज्योतिर मार्ग है। यानि कि इस बिंदु से लेकर दक्षिणी ध्रुव तक कोई भी भूखंड या बाधा नहीं है। यह सबसे अधिक हैरानी की बात है कि छठी शताब्दी में इस तरह के श्लोक का उल्लेख मिलना हैरानीजनक है। जो पूर्णतौर से सत्य है। इसकी पुष्टि साइंस कर चुका है। सबसे बड़ी बात है कि उस दौर के खगोलविदों (भारतीय ऋषियों मुनियों) को दक्षिणी ध्रुव और उत्तरी ध्रुव है की भी जानकारी थी। गौर हो धरती का पहला नक्शा बनाने का श्रेय ग्रीक वैज्ञानिक ‘एनेक्झिमेंडर’ (611-546) को दिया जाता है। पंरतु यह नक्शा अपूर्ण माना गया। क्योंकि उस नक्शे में उत्तर और दक्षिण ध्रुव की कोई भी जानकारी नहीं थी। प्रचलित नक्शा तो हेनरिक्स मार्टेलस ने वर्ष 1490 के आसपास बनाया था। ऐसा भी माना जाता है कि कोलंबस ने इसी नक़्शे के आधार पर अपना समुद्री सफर तय किया था। प्राचीन काल में जब कुरान में धरती को चपटाकार माना जा रहा था। उस समय बाणस्तंभ पर अंकित श्लोक से यह साफ हो गया था कि धरती गोलाकार है।

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भारत का प्राचीन नौकायन शास्त्र था बेहद मजबूत

बाणस्तंभ के श्लोक से संबंधित कुछ अन्य पहलूओं पर गौर करें। तो पता चलता है कि आर्यभट्ट ने वर्ष 500 के आसपास पृथ्वी को बताया। साथ ही पृथ्वी का व्यास चार हजार 967 योजन (39968 किलोमीटर) बताया। मौजूदा अत्याधुनिक तकनीकी की सहायता से पृथ्वी का व्यास चार हजार 75 किलोमीटर माना गया हैं। यानिकि आर्यभट्ट के आकलन में मात्र 0.26 फीसद का अंतर पाया गया। जो बेहद नाममात्र है। इस पर गौर करना बेहद जरुरी है कि डेढ़ हजार वर्ष पहले आर्यभट्ट के पास यह ज्ञान कहां से आया। वर्ष 2008 में जर्मनी के विख्यात इतिहासविद जोसेफ श्वार्ट्सबर्ग ने कहा था कि ईसा पूर्व दो-ढाई हजार वर्ष भारत में नकाशा शास्त्र अत्यंत विकसित था। नगर रचना के नक्शे उस समय उपलब्ध थे। इतना ही नहीं नौकायन के भी आवश्यक नक़्शे उपलब्ध थे। इसकी पुष्टि वर्ष 1955 में गुजरात के ‘लोथल’ में ढाई हजार वर्ष पूर्व नौकाओं के अवशेष मिले। जो भारत के प्राचीन काल में नौकायन के विकास को प्रमाणित करते हैं।

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