कुंभ में ही प्रकट होते हैं शिव और अग्नि के भक्त यह रहस्यमयी साधु

-एक सैन्य रेजीमेंट से कम नहीं है नागा साधु
आपने अक्सर अर्ध कुंभ, कुंभ के पावन अवसर पर ही लंबी-लंबी जटाओं वाले, शरीर पर विभूति लगाए, हाथों में त्रिशूल धारण किए नग्न साधुओं की एक विशेष जमात को देखा होगा। क्या आप इन नागा साधुओं के बारे जानते हैं। यदि नहीं तो आईए आपको इन शिव और अग्नि के भक्त, धर्म के सिपाही नागा साधुओं के इतिहास के बारे बताते हैं। आखिर यह रहस्यमयी नागा साधु कौन हैं? क्या है इनका इतिहास? कैसे बनते हैं और कहां रहते हैं यह साधु? इन सभी सवालों के जवाबों से आपको अवगत करवाते हैं।

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कौन हैं यह नागा साधु?
कोई भी वस्त्र न पहनने के कारण शिव और अग्नि भक्त नागा साधुओं को दिगंबर भी कहा जाता है। इनके बारे कहा जाता है कि आकाश ही इनका वस्त्र है। कपड़ों के नाम पर पूरे शरीर पर धूनी की राख लपेटे यह साधु केवल कुंभ मेले में सिर्फ शाही स्नान के समय ही श्रद्धालुओं के समक्ष आते हैं। भारतीय सनातन धर्म के वर्तमान स्वरूप की नींव आदिगुरू शंकराचार्य ने रखी थी। आठवीं शताब्दी के मध्य में जन्मे शंकराचार्य के समय भारतीय जनमानस की दशा ठीक नहीं थी। सोने की चिडि़या कहे जाने वाले भारत पर लगातार आक्रमण हो रहे थे। यहां के खजानों को लूट लिया गया। ऐसे में शंकराचार्य ने सनातन धर्म की स्थापना के लिए देश के चार कोनों में चार पीठ गोवर्धन पीठ, शारदा पीठ, द्वारिका पीठ और ज्योतिर्मठ पीठ की स्थापना की। मठों-मन्दिरों की संपत्ति को लूटने वालों के खिलाफ सशस्त्र शाखाओं के रूप में अखाड़ों की स्थापना की। इन अखाड़ों की जिम्मेवारी नागा साधुओं को दी गई। प्राचीन काल में स्थानीय राजा-महाराजा विदेशी आक्रमण की स्थिति में नागा योद्धा साधुओं का सहयोग भी लिया करते थे। इतिहास में कई गौरवपूर्ण युद्धों में 40 हजार से ज्यादा नागा योद्धाओं ने हिस्सा लिया। अहमद शाह अब्दाली द्वारा मथुरा-वृन्दावन के बाद गौकुल पर आक्रमण के समय नागा साधुओं ने उसकी सेना का मुकाबला करके गौकुल की रक्षा की।

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किसे कहते हैं नागा संन्‍यासी?
नागा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा से हुई। नागा शब्द का अर्थ पहाड़ होता है। इन पर रहने वालों को पहाड़ी या नागा साघु कहते हैं। कच्छारी भाषा में नागा का अर्थ बिना वस्त्रों के रहने वाले साधु भी है। नागा साधु तीन प्रकार के योग करते हैं। जो उन्हें ठंड से भी निपटने में मदद करते हैं। यह साधु अपने विचार और खानपान दोनों में ही संयम रखते हैं। नागा साधुओं को एक सैन्य रेजीमेंट भी कहा जाता है। नागा साधु शरीर पर भस्म, विभूति, गले रुद्राक्ष, हाथ में त्रिशूल, तलवार, शंख और चिलम धारण करते हैं। अधिकतर नागा साधु पुरुष ही होते हैं। कुछ महिलाएं भी नागा साधु हैं। परंतु वह सार्वजनिक रूप से नग्न नहीं रहती। वह हमेशा एक गेरुवा वस्त्र लपेटे रहती हैं।

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इनकी लंबी जटाएं होती हैं आकर्षण का केंद्र
धार्मिक, आध्‍यात्मिक और सांस्कृतिक समागम में भाग लेने वाले नागा साधुओं की लंबी जटाएं देखने वालों के लिए आकर्षण का केंद्र होती हैं। नागा साधु बढ़ी और उलझी जटाओं को भस्‍म से संवारते हैं। नागा साधु नग्न रहने तथा युद्ध कला में माहिर होते हैं। कई साधुओं की जटाएं तो दस फीट से भी अधिक की होती हैं। इनके लिए गृहस्थ जीवन से काई मतलब नहीं होता है। नागा साधुओं की वेशभूषा, रहना सहना. साधना-विधि सब अजरज भरी होती है। ये किस पल खुश और कब खफा हो जाएं। कुछ नहीं कहा जा सकता है। नागा साधुओं की ओर से अपने वालों की लंबी लटों को पांच बार घूमा कर लपेटना विशेष होता है।

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भारत में 13 प्रमुख अखाड़े
भारत में सबसे प्राचीन श्री निरंजनी अखाड़ा गुजरात के मांडवी में स्थापित हुआ। हुआ था। इनके ईष्ट देव भगवान शंकर के पुत्र कार्तिक स्वामी हैं। इस अखाड़ा की शाखाएं इलाहाबाद, उज्जैन, हरिद्वार, त्र्यंबकेश्वर व उदयपुर में हैं।
श्री जूनादत्त या जूना अखाड़ा उत्तराखण्ड के कर्णप्रयाग में स्थापित है। इसे भैरव अखाड़ा भी कहते हैं। इनके ईष्ट देव रुद्रावतार दत्तात्रेय हैं। इसका केंद्र वाराणसी के हनुमान घाट पर माना जाता है। इस अखाड़े में ही नागा साधु बनने की प्रक्रिया संपन्न होती है।
श्री महानिर्वाण अखाड़े की स्थापना बिहार-झारखण्ड के बैजनाथ धाम में हुई बताई जाती है। जबकि कुछ इस अखाड़े का जन्म स्थान हरिद्वार में नील धारा के पास मानते हैं। इस अखाड़ा की शाखाएं इलाहाबाद, हरिद्वार, उज्जैन, त्र्यंबकेश्वर, ओंकारेश्वर और कनखल में हैं। 1260 ईस्वी में महंत भगवानंद गिरी की अगुआई में 22 हजार नागा साधुओं ने कनखल स्थित मंदिर को आक्रमणकारी सेना के कब्जे से छुड़ाया था।
श्री अटल अखाड़ा की स्थापना गौंडवाना क्षेत्र में हुई। इस अखाड़ा के ईष्ट देव भगवान गणेश हैं।
श्री आह्वान अखाड़े के ईष्ट देव श्री दत्तात्रेय और श्री गजानन हैं। इस अखाड़े का केंद्र स्थान काशी है। इसका आश्रम ऋषिकेश में भी है।
श्री आनंद अखाड़ा मध्यप्रदेश के बेरार में स्थापित हुआ था। इसका केंद्र वाराणसी में है।
श्री पंचाग्नि अखाड़ा के इष्ट देव गायत्री हैं। और इनका प्रधान केंद्र काशी है।
श्री नागपंथी गोरखनाथ अखाड़ा अहिल्या-गोदावरी संगम पर स्थापित हुआ। इनके संस्थापक पीर शिवनाथजी हैं।
श्री वैष्णव अखाड़ा दारागंज में श्री मध्यमुरारी में स्थापित हुआ। इनका अखाड़ा त्र्यंबकेश्वर में मारुति मंदिर के पास था।
श्री उदासीन पंचायती बड़ा अखाड़ा के संस्थापक श्री चंद्रआचार्य उदासीन हैं।
श्री उदासीन नया अखाड़ा 1720 में स्थापित हुआ। इसके प्रवर्तक महत सुधीर दास थे।
श्री निर्मल पंचायती अखाड़े की स्थापना 1784 में हरिद्वार कुंभ मेले के समय श्री दुर्गा सिंह महाराज ने की। इनकी ईष्ट पुस्तक श्री गुरुग्रंथ साहिब है।
निर्मोही अखाड़ा की स्पना १७२० में रामानंदाचार्य ने की थी। इस अखाड़े के मठ और मंदिर उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात और बिहार में हैं। पुराने समय में इसके अनुयायियों को तीरंदाजी और तलवारबाजी की शिक्षा भी दिलाई जाती थी।

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नागा साधु बनने की विशेष प्रक्रिया
नागा साधु बनने की प्रक्रिया कठिन तथा लंबी होती है। नागा साधुओं के पंथ में शामिल होने की प्रक्रिया में लगभग छह साल लगते हैं। इस दौरान नए सदस्य एक लंगोट के अलावा कुछ भी नहीं पहनते। कुंभ मेले में अंतिम प्रण लेने के बाद यह लंगोट भी त्याग देते हैं और जीवन भर नग्न रहते हैं। कोई भी अखाड़ा अच्छी तरह जांच-पड़ताल कर योग्य व्यक्ति को ही आखाड़ा में प्रवेश देता है। पहले उसे लम्बे समय तक ब्रह्मचारी के रूप में रहना होता है। फिर उसे महापुरुष और फिर अवधूत बनाया जाता है। अवधूत का जनेऊ संस्कार किया जाता है। अंतिम प्रक्रिया महाकुंभ में होती है। इस दौरान कुंभ में 108 डुबकी लगाई जाती है। जिसमें नागा साधु स्वयं का पिण्डदान करते हैं। नागा साधु सात घरों से भिक्षा मांग कर केवल एक ही समय भोजन करते हैं। यह किसी घर या गांव में नहीं रहते हैं। सभी नागा साधु जमीन पर ही सोते हैं।

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प्रदीप शाही

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