यहां पर किया भगवान श्री विष्णू जी, माता लक्ष्मी जी ने कठोर तप…

-पांडवों ने इसी स्थान पर किया था अपने पितरों का पिंडदान
-पुराणों में वर्णित है बद्रीनाथ धाम मंदिर की महिमा
भारत की धरती के कण-कण में देवी-देवाताओं का वास है। कई स्थानों पर देवी-देवाताओं ने कठोर तपस्या कर उस जगह को पावन कर दिया। एेसा ही एक पावन स्थान अलकनन्दा नदी के तट पर स्थित है। इस स्थान पर भगवान श्री विष्णू जी औऱ माता लक्ष्मी ने एक समान कठोर तप किया। इतना ही नहीं इसी स्थान पर पांडवों ने अपने पितरों का पिंडदान किया। विष्णु पुराण, महाभारत तथा स्कन्द पुराण जैसे कई प्राचीन ग्रन्थों में बद्रीनाथ मंदिर का उल्लेख है। यह मंदिर कलयुग में एक धाम के रुप में विख्यात है। जहां पर विराजमान भगवान श्री विष्णू हरि व माता लक्ष्मी जी भक्तों के दुखों का निवारण कर रहे हैं। मंदिर के सामने नर पर्वत, जबकि पीठ की तरफ नीलकण्ठ शिखर के पीछे नारायण पर्वत स्थित है।


धाम का ग्रंथों में विशेष वर्णन
बद्रीनाथ मंदिर का उल्लेख विष्णु पुराण, महाभारत तथा स्कन्द पुराण समेत कई प्राचीन ग्रन्थों में दर्ज है। कई वैदिक ग्रंथों में भी मंदिर के देवता बद्रीनाथ का उल्लेख मिलता है। स्कन्द पुराण में वर्णित है कि स्वर्ग, पृथ्वी तथा नर्क तीनों ही जगह अनेकों तीर्थ स्थान हैं, परन्तु फिर भी बद्रीनाथ जैसा कोई तीर्थ न कभी था, और न ही कभी होगा। वहं मंदिर के आसपास के क्षेत्र को पद्म पुराण में आध्यात्मिक निधियों से संपन्न कहा गया है। जबकि भागवत पुराण में बद्रिकाश्रम (बद्रीनाथ) में भगवान विष्णु सभी जीवित इकाइयों के उद्धार हेतु नर तथा नारायण के रूप में अनंत काल से तपस्या में लीन हैं। इसके अलावा महाभारत में बद्रीनाथ के बारे लिखा गया है कि अन्य तीर्थों में तो विधिपूर्वक पालन करते हुए मृत्यु होने से ही मनुष्य की मुक्ति होती है। पंरतु बद्री विशाल के दर्शन मात्र से ही मुक्ति इंसान को मिल जाती है। इसी तरह वराहपुराण में इंसान कहीं भी, किसी भी स्थान पर रह कर यदि बद्री आश्रम का स्मरण करता है, तो वह वैष्णव धाम को प्राप्त होता है। । स्कन्दपुराण में बद्री क्षेत्र को मुक्तिप्रदा के नाम से जाना जाता है। त्रेता युग में भगवान नारायण के इस क्षेत्र को योग सिद्ध, द्वापर युग में भगवान के प्रत्यक्ष दर्शन के कारण इसे मणिभद्र आश्रम या विशाला तीर्थ कहा गया। जबकि मौजूदा समय में इसे बद्रिकाश्रम या बद्रीनाथ धाम के नाम से पुकारा जाता है।

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मंदिर में होती भगवान विष्णू के बद्रीनारायण रुप की पूजा
मंदिर में विराजमान भगवान विष्णु के एक स्वरुप बद्रीनारायण जी की पूजा की जाती है। मंदिर में भगवान की 3.3 फीट उंची शालिग्राम की मूर्ति है। मान्यतानुसार आदि शंकराचार्य ने आठवीं शताब्दी में इस प्रतिमा को नारद कुण्ड से निकालकर स्थापित किया था। इस मूर्ति को कई हिंदुओं द्वारा विष्णु की स्वयं प्रकट हुई प्रतिमाओं में से एक माना जाता है। इस मंदिर के बारे आठवीं शताब्दी से पहले आलवार संतों द्वारा रचित नालयिर दिव्य प्रबन्ध में इसकी महिमा का वर्णन है। बद्रीनाथ मंदिर के पास स्थित पांच मन्दिरों के समूह को पंच-बद्री (योगध्यान-बद्री, भविष्य-बद्री, वृद्ध-बद्री और आदि बद्री) मंदिरों को पंच-बद्री कहा जाता है।

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बद्रीनाथ धाम की उत्पत्ति कैसे हुई
बद्रीनाथ धाम की उत्पत्ति के बारे कई कथाएं प्रचलित हैं। कहा जाता है कि नारद मुनि एक बार भगवान् विष्णु के दर्शन हेतु क्षीरसागर पधारे। जहां पर उन्होंने माता लक्ष्मी को भगवान विष्णू के पैर दबाते देखा। नारद मुनि ने जब भगवान से इसके बारे में पूछा। तो वह अपराध बोध के चलते हिमालय पर तपस्या करने चले गए। भगवान विष्णु ध्यान मुद्रा में तपस्या में लीन हो गए। इसी दौरान हिमपात होने लगा। भगवान विष्णू जी हिम में डूब गए। माता लक्ष्मी इस स्थिति को देख कर भावुक हो गई। माता लक्ष्मी ने भगवान विष्णू के पास ही बद्री के वृक्ष का विशाल रूप ले लिया। ताकि वह हिम को भगवान लक्ष्मी तक न पहुंचने दे। माता लक्ष्मी जी गर्मी, सर्दी, धूप, वर्षा और हिम से भगवान विष्णू को बचाने में कठोर तपस्या में जुट गयीं। कई वर्षों बाद जब भगवान ने अपना तप पूर्ण किया, तो माता लक्ष्मी के इस तप को देख कर प्रसन्न हो गए। भगवान विष्णू ने कहा कि हे देवी, तुमने भी मेरे ही बराबर तप किया है। एेसे में आज से इस स्थान को धाम का दर्जा हासिल होगा। आपने मेरी रक्षा बद्री वृक्ष के रूप में की है। अब इस स्थान को बद्री के नाथ-बद्रीनाथ के नाम से ही पुकारा जाएगा।
पौराणिक लोक कथा अनुसार जब गंगा नदी धरती पर अवतरित हुई, तो यह बारह धाराओं में बंट गई। इस स्थान पर से होकर बहने वाली धारा कोअलकनन्दा के नाम से पुकारा गया। भगवान विष्णु जब अपने ध्यान योग हेतु उचित स्थान खोज रहे थे, तब उन्हें अलकनन्दा के पास का स्थान अच्छा लगा। तब नीलकण्ठ पर्वत के समीप भगवान विष्णू ने बाल रूप में अवतार लिया। उनका रूदन सुन कर माता पार्वती पसीज गई। बालक के पास पहुंच कर उसे मनाने का लगी। बालक ने उनसे ध्यानयोग करने हेतु इस स्थान को मांग लिया। जो आज बद्रीनाथ के रुप में विख्यात है।
यह भी माना जाता है कि ऋषि व्यास जी ने महाभारत की रचना इसी जगह पर की थी। इसी स्थान पर पांडवों ने अपने पितरों का पिंडदान किया था। इसी कारण से बद्रीनाथ के ब्रह्म कपाल क्षेत्र में आज भी तीर्थयात्री अपने पितरों की आत्मिक शांति के लिए पिंडदान करने आते हैं।


मंदिर के पास स्थित हैं कुंड
बद्रीनाथ मंदिर में कई कुंड हैं। मंदिर के ठीक नीचे तप्त कुंड नामक गर्म चश्मा है। सल्फर युक्त पानी के इस कुंड को औषधीय कुंड माना जाता है। इस चश्मे में सालाना तापमान 55 डिग्री सेल्सियस रहता है। जबकि कुंड के बाहर का तापमान सारे साल 17 डिग्री सेल्सियस रहता है। मन्दिर में पानी के दो अन्य कुंड भी हैं। जिन्हें नारद और सूर्य कुंड के रुप में जाना जाता है।

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मंदिर की नक्काशी करती है अचंभित
मंदिर में गर्भगृह, दर्शन मंडप, और सभा मंडप तीन स्थान प्रमुख है। पत्थर से निर्मित है मंदिर क मुख्य द्वार। जिसे सिंह द्वार भी कहा जाता है। जिसमें धनुषाकार खिड़कियां और धनुषाकार द्वार लगा हुआ है। इस द्वार के शीर्ष पर तीन स्वर्ण कलश भी लगे हुए हैं। छत के मध्य में एक विशाल घंटा लटका हुआ है। मंदिर में प्रवेश करते ही मंडप है। इस हॉल की दीवारों और स्तंभों को अनूछी नक्काशी की हुई है। इस मंडप में बैठ कर श्रद्धालु पूजा अर्चना करते हैं। जबकि सभा मंडप में ही मंदिर के धर्माधिकारी व अन्य विद्वान बैठते हैं। गर्भगृह की छत शंकुधारी आकार की है। जो करीब 15 मीटर लंबी है। छत के शीर्ष पर बने एक गुंबद पर सोने का पानी चढ़ा हुआ है।

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मंदिर में प्राण-प्रतिष्ठित हैं यह प्रतिमाएं
बद्रीनाथ मंदिर में 3.3 फीट अंची मूर्ति विद्यमान है। यह प्रतिमा बद्री वृक्ष के नीचे सोने की चंदवा में रखी हुई है। बद्री नारायण भगवान की इस मूर्ति में भगवान के चार हाथ हैं। दो हाथ ऊपर उठे हुए हैं। एक में शंख, और दूसरे में चक्र है। जबकि अन्य दो हाथ योगमुद्रा (पद्मासन की मुद्रा) में भगवान की गोद में उपस्थित हैं। मूर्ति के मस्तक पर हीरा भी जड़ा हुआ है। गर्भगृह में धन के देवता कुबेर, देवर्षि नारद, उद्धव, नर और नारायण की मूर्तियां भी हैं। मन्दिर के चारों तरफ पंद्रह मूर्तियों प्राण प्रतिष्ठित है। इनमें प्रमुख तौर से माता लक्ष्मी, गरुड़ (भगवान विष्णू के वाहन), नौ अलग-अलग रूपों में माता दुर्गा की मूर्तियां शामिल हैं। बद्रीनाथ मन्दिर में स्थित सभी मूर्तियां शालीग्राम से बनी हैं।

भ्रात द्वितीय पर होते हैं मंदिर के कपाट बंद
बद्रीनाथ मंदिर के कपाट भ्रातृ द्वितीया के दिन अक्टूबर-नवंबर के आसपास सर्दियों में बंद रहते हैं। जिस दिन मन्दिर के कपाट बंद किए जाते हैं। स दिन एक दीपक में छह महीने के लिए पर्याप्त घी भरकर अखंड ज्योति प्रज्ज्वलित की जाती है। तीर्थयात्रियों की मौजूदगी में मुख्य पुजारी उस दिन विशेष पूजा करते हैं। इसके बाद बद्रीनाथ की मूर्ति को मंदिर करीब 40 मील दूर स्थित ज्योतिर्मठ के नरसिंह मंदिर में स्थानांतरित कर दिया जाता है। लगभग छह महीनों तक बंद रहने के बाद मंदिर के कपाट अक्षय तृतीया के अवसर पर अप्रैल-मई में फिर से खोल दिये जाते हैं।

प्रदीप शाही

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