यहां का दशहरा नहीं देखा तो कुछ भी नहीं देखा…विश्व प्रसिद्ध है यह दशहरा

-डॉ.धर्मेन्द्र संधू

बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक दशहरा यानि विजयादशमी का त्योहार पूरे भारत में हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। मां दुर्गा के नौ नवरात्रों के बाद दसवें दिन दशहरे का पर्व मनाने की परंपरा सदियों से चली रही है। इस दिन भगवान श्री राम ने रावण का वध किया था और माता सीता से भगवान राम का पुनः मिलन हुआ था। भारत के पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश के कुल्लू में मनाए जाने वाले दशहरे का विशेष महत्व है।

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कुल्लू का दशहरा

कुल्लू में दशहरा पर्व का आरंभ आश्विन महीने की दसवीं तारीख से होता है। कुल्लू में मनाए जाने वाले दशहरे के बारे में एक खास बात है जो इसे विशेष बनाती है। वह यह है कि कुल्लू में दशहरा पर्व एक दिन नहीं बल्कि सात दिन तक धूमधाम से मनाया जाता है। एक और बात जो इस पर्व को अन्य स्थानों पर मनाए जाने वाले दशहरे से अलग करती है कि जब पूरे देश में दशहरा मनाया जा चुका होता है उसके बाद कुल्लू में दशहरे की शुरूआत होती है। 

दिया जाता है यज्ञ का न्योता

कुल्लू के दशहरे से पहले राजा द्वारा देवी-देवताओं को यज्ञ के लिए न्योता देने की परंपरा है। आश्विन महीने के पहले 15 दिनों में राजा द्वारा सभी देवी-देवताओं को धालपुर घाटी में रघुनाथजी के सम्मान में यज्ञ करने के लिए न्योता दिया जाता है। इसके बाद बड़ी संख्या में देवी-देवताओं को सजी हुई पालकियों में बिठाकर लाया जाता है। पर्व के पहले दिन दशहरे की देवी यानि मनाली की हिडिंबा देवी का कुल्लू में आगमन होता है।

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निकाली जाती है भव्य यात्रा

इस उत्सव में भव्य यात्रा निकाली जाती है। इस दौरान एक रथ में रघुनाथजी और माता सीता के साथ हिडिंबा देवी की प्रतिमाओं को सुशोभित किया जाता है। इस रथ को एक से दूसरे स्थान पर लेजाया जाता है। एक खास स्थान पर इस रथ के छह दिनों तक ठहराव  की व्यवस्था की जाती है। प्रथम दिन हिडिंबा देवी का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए राजघराने के लोग पहुंचते हैं।

मोहल्ला उत्सव है आकर्षण का केन्द्र

इस उत्सव के छठे दिन मोहल्ला उत्सव का आयोजन किया जाता है। मोहल्ला उत्सव में सभी देवी-देवता मिलते हैं। इस दौरान पूरी रात श्रद्धालु नाचते-गाते हैं। इसके बाद यानि सातवें दिन यह रथयात्रा बियास नदी के किनारे पर पहृंचती है। इस स्थान पर लंकादहन का आयोजन किया जाता है। उत्सव के बाद रघुनाथजी रघुनाथपुर में स्थित मंदिर में फिर से विराजमान हो जाते हैं।

कुल्लू के दशहरे से जुड़ी कथा

कुल्लू के दशहरे के साथ एक प्राचीन कथा जुड़ी है। कथा के अनुसार इस स्थान पर जगत सिंह नामक राजा का शासन था। एक बार मणिकर्ण की यात्रा के दौरान राजा जगत सिंह को पता चला कि एक गांव में एक ब्राह्मण रहता है जिसके पास कीमती रत्न हैं। रत्न पाने के इच्छा से राजा ने अपने सैनिक ब्राह्मण के पास भेजे। लेकिन सैनिकों द्वारा डराए-धमकाए जाने के बाद ब्राह्मण ने अपने परिवार के साथ अपने प्राण त्याग दिए और मरने से पहले राजा को श्राप दे दिया जिसके चलते राजा की सेहत खराब हो गई। इसके बाद एक साधू ने राजा को इस श्राप से मुक्ति पाने का उपाय बताया। उस साधू ने बताया कि इस स्थान पर रघुनाथजी की मूर्ति स्थापित की जाए। राजा ने अयोध्या से मूर्ति मंगवाकर स्थापित करवाई जिसके बाद राजा की सेहत में सुधार हो गया। राजा ने अपना सारा राज्य भगवान रघुनाथ जी को समर्पित कर दिया।

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बलि देने की परंपरा

कुल्लू में दशहरे के त्योहार को दशमी कहा जाता है। कुल्लू में रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण के पुतले जलाने की बजाए काम, क्रोध, मोह, लोभ और अहंकार के प्रतीक के रूप में पांच जानवरों की बलि देने की प्रथा है। इस उत्सव में देश के साथ ही विदेश से भी बड़ी संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं।

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