माता गुजरी जी, बाबा जोरावर सिंह, फतेह सिंह का यहां हुआ था अंतिम संस्कार…

-शहादत के 138 साल बाद खोजा गया था अंतिम संस्कार वाला स्थान

-1843 में महाराजा कर्म सिंह ने बनवाया था गुरुद्वारा ज्योति स्वरुप साहिब

भारत के इतिहास में सरबंस दानी गुरु गोविंद सिंह के सुपुत्र साहिबजादे जोरावर सिंह और फतेह सिंह सिंह की शहादत से बड़ी किसी शहादत की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। धर्म की रक्षा के लिए अपना बलिदान देने वाले नौ वर्षीय बाबा जोरावर सिंह व छह वर्षीय फतेह सिंह व इनकी दादी माता गुजरी जी का दीवान टोडर मल जैन की ओर से धरती पर स्वर्ण मोहरों को बिछा कर खरीदी गई जमीन पर पूर्ण विधि विधान से अंतिम संस्कार किया गया। इस पावन धरती पर हर धर्म को मानने वाले लोग उनकी शहादत वाले दिन नत-मस्तक हो कर अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं। साहिबजादों की शहादत के 138 साल बाद महाराजा कर्म सिंह ने अंतिम संस्कार वाले स्थान को खोज कर गुरुद्वारा ज्योति सरुप साहिब का निर्माण करवाया।

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इस्लाम धर्म न कबूलने पर हुए थे साहिबजादे शहीद

उफान से भरी सिरसा नदी के किनारे पर माता गुजरी जी, साहिबजादे बाबा जोरावर सिंह व साहिबजादे फतेह सिंह, गुरु गोविंद सिंह से बिछुड़ गए। गुरु साहिब के रसोईए गंगू ने  माता गुजरी जी, दोनों साहिबजादों को अपने घर में शरण दी। परंतु धन के लालच में आकर इन तीनों की जानकारी मुगलों को प्रदान कर दी। मुगलों ने गुरु साहिब पर दबाव बनाने के चलते  इन तीनों को ठंडा बुर्ज में कैद कर लिया। बच्चों को इस्लाम धर्म कबूलने करने के लिए कहा। परंतु बच्चों ने इस्लाम धर्म को कबूल न करने का अपना फैसला सुनाया। आखिर सरहिंद के शासक वजीर खान ने दोनों बच्चों को मौजूदा भौरा साहिब स्थल पर जिंदा ही दीवार में चिनवा दिया। अपने पोतों की दर्दनाक मौत की खबर सुन कर माता गुजरी ने प्राण त्याग दिए। माता गुजरी जी, साहिबजादों बाबा जोरावर सिंह, बाबा फतेह सिंह के पार्थिव शरीरों का अंतिम संस्कार करने के लिए दीवान टोडर मल ने 78 हजार स्वर्ण मोहरों को बिछा कर जमीन को खरीदा था।

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बाबा बंदा सिंह बहादुर ने लिया 1710 में बदला

सरहिंद के मुगल शासक वजीर खान जिसने गुरु साहिब के साहिबजादों बाबा जोरावर सिंह व बाबा फतेह सिंह को जिंदा दीवार में चिनवाया था। इस वजीऱ खान को बाबा बंदा सिंह बहादुर ने  1710 में मौत के घाट उतार कर साहिबजादों को अपनी सच्ची श्रद्धांजलि भेंट की। इतिहासकारों अनुसार 1764 में दल खालसा ने भी इस जगह पर कोई स्मारक नहीं बनवाया था।

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138 साल बाद वर्ष 1843 में चिह्नित किया अंतिम संस्कार वाला स्थान

इतिहासकारों अनुसार पटियाला के महाराजा कर्म सिंह ने 138 साल बाद वर्ष 1843 में गुरुद्वारा फतेहगढ़ साहिब का पुनर्निर्माण किया। तब उन्होंने माता गुजरी जी व दोनों साहिबजादों के अंतिम संस्कार किए जाने वाले सटीक स्थान को खोजा। खोज के दौरान अंतिम संस्कार के बाद धरती में दबी राख को ढूंड लिया गया था। इसके बाद इस पावन स्थल पर ही गुरुद्वारा ज्योति स्वरुप साहिब का निर्माण किया। इसके बार एक शताब्दी बाद वर्ष 1944 में पटियाला महाराजा यादवेंद्र सिंह ने गुरुद्वारा श्री फतेहगढ़ साहिब और गुरुद्वारा श्री ज्योति सरुप साहिब  के विकास के लिए एक समिति की स्थापना की। गुरुद्वारा परिसर का मुख्य प्रवेश 1952 में महाराजा यादवेंद्र सिंह ने ही बनाया था। इसके वर्ष 1955 में गुरुद्वारा साहिब की इमारत में दो उपरी मंजिलों और गुंबदों का निर्माण किया गया।  जोधपुर के राजकुमार हिम्मत सिंह ने वर्ष 1951 में पटियाला की राजकुमारी शैलेंद्र कौर से विवाह किया। तो जोधपुर के महाराजा ने माता गुजरी की पवित्र स्मृति को समर्पित एक सफेद संगमरमर के बुर्ज का निर्माण करवाया।  जो आज भी गुरुद्वारा साहिब के दक्षिण पश्चिम कोने मे स्थित है।

गुरुद्वारा श्री ज्योति स्वरुप साहिब में संपन्न होती प्रार्थना सभा

गुरुद्वारा फतेहगढ़ साहिब में 13 पोह के दिन आयोजित होने वाली प्रार्थना सभा का समापन गुरुद्वारा ज्योति स्वरुप साहिब में होता है। यह गुरुद्वारा सरहिंद शहर में स्थित है। यह गुरुद्वारा फतेहगढ़ साहिब के पूर्व में एक मील की दूरी पर है।

प्रदीप शाही

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