भगवान राम के काल में विद्यमान थी यह विचित्र प्रजातियां

-प्राकृतिक असंतुलन के कारण लुप्त हुई कुछ प्रजातियां

प्रदीप शाही

जिस तरह से प्यार की भाषा को इंसान हो या पक्षी या फिर जानवर सभी समझ लेते हैं। उसी तरह से पक्षी और जानवर भी आपस में बातें करते हैं। परंतु इसे इंसान समझने में असमर्थ हो चुका है। पक्षियों और जानवरो की भाषा की समझने के लिए वैज्ञानिक कोशिशों में जुटे हैं। त्रेता युग एक ऐसा काल कथा जब इंसान, जानवरों और पक्षियों की भाषाओं को सुन और समझ सकता था। इतना ही नहीं इनसे वह बातें करने में भी सक्षम था। त्रेता युग में अवतरित हुए भगवान श्री विष्णु हरि जी के अवतार भगवान श्री राम के काल में कई विचित्र प्रजातियां विद्यमान थी। परंतु प्राकृतिक असंतुलन के चलते कुछ प्रजातियां लुप्त हो चुकी हैं। आईए, आज आपको त्रेता युग की उन विचित्र पशु, पक्षियों की प्रजातियों के बारे विस्तार से जानकारी प्रदान करते हैं।

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वानर जाति से संबंधित थे हनुमान जी

भगवान श्री राम के परम भक्त श्री हनुमान जी को भगवान शिव का अंशावतार माना जाता है। श्री हनुमान जी की माता अंजनी वानर जाति से थी। जबकि पिता पवन देव थे। ऐसे में श्री हनुमान जी शारीरिक रुप से एक वानर और पिता के संस्कार स्वरुप हवा में उड़ने में भी प्रवीण थे। रामायण हो या श्री राम चरित मानस इन सभी में हनुमान जी को एक वानर के रुप में माना गया है। जिन्होंने पूंछ में आग लगाने के बाद रावण की सोने की लंका को ही जला डाला था। रामायण में हनुमान जी के अलावा वानर रुप में केसरी, सुग्रीव, बाली, अंगद (बाली का पुत्र), सुषेण वैद्य का उल्लेख मिलता है। वानरों में कपि नामक प्रजाति सबसे प्रमुख मानी गई है। यह वानर जाति इंसानों समान ही बोलने व अन्य सभी तरह के कार्य करने में सक्षम थी। यदि वानर के अर्थ का सज्ञान लें, तो इसका असल अर्थ है। वन में रहने वाला नर। मानव रुप में कपि प्रजाति के अलावा चिम्पांजी, गोरिल्ला और ओरंगउटान के प्रजाति तो आज भी पाई जाती है। माना जाता है कि श्री हनुमान जी कपि प्रजाति से संबंधित थे।
भारत के दंडकारण्य क्षेत्र में वानरों और असुरों का राज था। दंडकारण्य वन विध्यांचल पर्वत से गोदावरी तक फैला हुआ था। दंडकारण्य वन का क्षेत्र मौजूदा समय में छत्तीसगढ़, ओडिशा और आंध्र प्रदेश में आता है। कहा जाता है कि दक्षिण में मलय पर्वत और ऋष्यमूक पर्वत के आसपास भी वानरों का राज था। इतना ही नहीं वानर राज जैसे द्वीपों के कुछ हिस्सों पर भी था।

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गरुड़ (गिद्ध) है भगवान श्री विष्णु हरि का वाहन

गरुड़ गिद्ध की ही एक प्रजाति है। मौजूदा समय में यह प्रजाति लगभग समाप्त होने के कगार पर है। बुद्धिमान प्रजाति होने के कारण गरुड़ को ही भगवान श्री विष्णु हरि ने अपना वाहन बनाया था। प्राचीन काल में तो कबूतर के अलावा गरुड़ को भी संदेश वाहक के रुप में भी प्रयुक्त किया रहा था। भगवान श्री राम के त्रेता युग में गरुड़ की संपाती औऱ जटायू नामक प्रजातियां भी थी। जो दंडकारण्य क्षेत्र में ही रहती थी। मौजूदा समय में गरुड़ की प्रजाति की संख्या अधिक इस क्षेत्र में ही है। इस इलाके में ही जब लंकापति रावण, माता सीता को हरण कर ले रहा था। तो जटायु ने उसका रास्ता रोक लिया था। युद्ध के दौरान जटायू के कुछ अंग भी इसी क्षेत्र में गिरे। जटायू का एक मंदिर आज भी इस क्षेत्र में है। मध्यप्रदेश के देवास जिले की तहसील बागली में जटाशंकर नामक एक स्थान है। जिसके बारे में माना जाता है कि गिद्धराज जटायू वहां पर तप किया करते थे। जटायू पहला ऐसा पक्षी था। जो माता सीता की रक्षा में करने मारा गया। कहा जाता है कि प्रजापति कश्यप की पत्नी विनता के दो पुत्र गरुड़ और अरुण थे। गरुड भगवान विष्णु के औऱ अरुण ने सूर्य भगवान के सारथी बने। जटायू औऱ संपाती को अरुण का ही पुत्र कहा जाता है। संपाती बड़ा और जटायु छोटा। यह दोनों विंध्याचल पर्वत की तलहटी में रहने वाले निशाकर ऋषि की सेवा करते थे। एक बार बचपन में संपाती और जटायु ने सूर्य-मंडल को स्पर्श करने की हौड़ लग गई। सूर्य को स्पर्श करने की हौड़ में जटायू अर्ध रास्ते में ही वापिस आ गए। जबकि संपाती सूर्य के बेहद निकट पहुंच गए। परंतु उनके पंख जल गए। मूर्छित होकर समूद्र में आकर गिर गए। चंद्रमा नामक मुनि ने उनका उपचार किया। त्रेता युग में माता सीता की खोज के दौरान उन्होंने भी वानरों की मदद की थी। जटायु जब नासिक के पंचवटी में रहते थे। एक दिन आखेट के समय महाराज दशरथ से उनकी मुलाकात हुई। वह तभी से महाराज दशरथ के मित्र बन गए। वनवास के समय जब भगवान श्रीराम पंचवटी में पर्णकुटी बनाकर रहने लगे। तब पहली बार जटायू की उनसे मुलाकात हुई थी। रामकथा में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले गिद्ध-बंधु संपाती और जटायू अमर हैं। ।

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त्रेतायुग के मानव रुपी रीछ
रामायण काल में मानवनुमा रीछों का उल्लेख मिलता है। जाम्बवंत इसका उदाहण हैं। जाम्बवंत का नाता देवकुल से था। भालू या रीछ, उरसीडे परिवार का एक स्तनधारी जानवर है। संस्कृत में भालू को ‘ऋक्ष’ कहते हैं। जिससे ‘रीछ’ शब्द की उत्पत्ति हुई ती। यह रीछ समुद्र के तटों पर मचान को निर्मित करने की तकनीक जानते थे। जहां यंत्र लगाकर समुद्री मार्गों और पदार्थों का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता था। मान्यता है कि उन्होंने एक ऐसे यंत्र का निर्माण किया था। जो सभी तरह के विषैले परमाणुओं को निगल जाता था। रावण ने इस सभी रीछों के राज्य को अपने अधीन कर लिया था। जाम्बवंत ने युद्ध में भगवान श्री राम की युद्ध के दौरान सहायता की थी। जाम्बवंत ने ही हनुमानजी को उनकी सोई हुई शक्तियों को स्मरण करवा जागृति करने में मदद की थी। जब लक्ष्मण, मेघनाद के प्रहार से मूर्छित हो गए थे। तब श्री हनुमान जी अपनी जागृत हुई शक्तियों के बल से ही संजीवनी बूटी लाए थे। कहा जाता है कि रीछ या भालू जाम्बवंत के ही वंशज हैं। जाम्बवंत की उम्र बहुत लंबी थी। पांच हजार वर्ष बाद उन्होंने द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण के साथ एक गुफा में स्मयंतक मणि के लिए युद्ध किया था। जम्मू-कश्मीर में जाम्बवंत गुफा मंदिर आज भी है। इतना ही नहीं जाम्बवंत की बेटी के साथ ही भगवान श्री कृष्ण ने विवाह किया था।

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काकभुशुण्डि ने किया गरुड़ का संदेह दूर

लोमश ऋषि के श्राप के चलते ब्राह्मण काकभुशुण्डि कौवा बन गए थे। परंतु लोमश ऋषि ने अपने श्राप से मुक्ति दिलाने के लिए उन्हें राम मंत्र और इच्छामृत्यु का वरदान दिया। काकभुशुण्डि ने कौवे के रूप में ही अपना समूचा  जीवन व्यतीत किया। महर्षि वाल्मीकि से पहले ही काकभुशुण्डि ने रामायण की सारी गाथा गिद्धराज गरूड़ को सुना दी थी। इससे पूर्व श्री हनुमान जी ने भी संपूर्ण रामायण पाठ लिखकर समुद्र में फेंक दी थी। महर्षि वाल्मीकि, श्री राम के समकालीन थे। महर्षि वाल्मीकि ने रामायण तब लिखी। जब रावण-वध के बाद श्री राम का राज्याभिषेक हो चुका था।
लंकापति रावण के पुत्र मेघनाथ ने श्रीराम से युद्ध करते हुए श्रीराम को नागपाश से बांध दिया था। तब देवर्षि नारद के कहने पर गिद्धराज गरूड़ ने नागपाश के समस्त नागों को खाकर श्रीराम को नागपाश के बंधन से मुक्त किया था। भगवान राम के इस तरह से नागपाश में बंध जाने पर गरुड़ को श्रीराम के भगवान होने पर संदेह हो गया। गरूड़ का संदेह दूर करने के लिए देवर्षि नारद उन्हें भगवान श्री ब्रह्मा जी के पास भेज दिया था। परंतु भगवान श्री ब्रह्मा जी उन्हें देवों के देव महादेव के पास भेज दिया। वहीं भगवान शंकर ने गरूड़ को उसका संदेह मिटाने के लिए काकभुशुण्डिजी के पास भेज दिया। अंत में काकभुशुण्डिजी ने राम के चरित्र की पवित्र कथा सुनाकर गरूड़ के मन में उत्पन्न भ्रम को दूर किया।

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क्रौंच पक्षी की मौत से द्रवित हुए महर्षि वाल्मीकि

रामायण में सारस जैसे एक क्रौंच पक्षी का वर्णन भी आता है। महर्षि वाल्मीकि भगवान श्री राम के समकालीन थे। उन्होंने श्री रामायण की रचना तब की। जब श्री राम लंका पर विजय हासिल कर चुके थे। तथा उनका राज्याभिषेक हो चुका था। एक दिन सुबह गंगा के पास बहने वाली तमसा नदी के पास मुनि वाल्मीकि, ऋषि भारद्वाज के साथ स्नान के लिए गए। वहां नदी के किनारे पेड़ पर क्रौंच पक्षी का एक जोड़ा अपने में मग्न था। तभी एक शिकारी ने इस जोड़े में से नर क्रौंच (सारस) को अपने बाण से मार दिया। रोती हुई मादा क्रौंच भयानक विलाप करने लगी। इस हृदयविदारक घटना को देखकर महर्षि वाल्मीकि के द्रवित हुए हृदय से अचानक यह श्लोक –

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शास्वती समा।
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी: काममोहितम्।।

निकल पड़ा।

गुरु वाल्मीकि ने ऋषि भारद्वाज से कहा कि यह श्लोक मेरे दिल की आवाज है। महर्षि वाल्मीकि के दिल में उपजी करुणा में से काव्य पैदा हो गया। तब भगवान श्री ब्रह्मा जी ने महर्षि वाल्मीकि को आशीर्वाद देते हुए रामायण की रचना करने के लिए कहा। भगवान श्री ब्रह्मा ने कहा कि तुम आदिकवि हो। इसी शैली में रामकथा की रचना करो। जब तक यह दुनिया रहेगी। तब तक राम कथा जनमानस के दिलों में समाई रहेगी।

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