त्रिदेव सहित, भूत, वर्तमान, भविष्य, धऱती, स्वर्ग, पाताल का है यह प्रतीक ???

-महादेव संग कई देेवी देवता भी धारण करते हैं त्रिशूल

-हिंदू चिह्न ही नहीं परंपरागत हथियार भी है त्रिशूल

-हस्तरेखा विज्ञान में है त्रिशूल का विशेष महत्व

सनातन संस्कृति में त्रिशूल को हिंदूओं के पावन चिह्न के रुप में ही नहीं एक परंपरागत भारतीय हथियार के रुप में भी मान्यता प्रदान है। त्रिशूल को त्रिदेव सहित, भूत, वर्तमान, भविष्य, धऱती, स्वर्ग, पाताल का प्रतीक भी माना गया है। त्रिशूल को देवों के देव महादेव संग अन्य देवी देवता भी धारण करते हैं। इतना ही नहीं त्रिशूल को हस्तरेखा विज्ञान में भी विशेष महत्व दिया गया है। आईए आपको बताएं कि त्रिशूल को क्यों इतना पावन माना गया है।

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त्रिशूल के तीन भागों की क्या हैं व्याख्याएं…

पावन त्रिशूल के तीन भागों के बारे कई  व्याख्याएं की गई है। त्रिशूल के तीन सिरों के कई अर्थ माने गए हैं। देवों के देव महादेव शंकर की ओर से त्रिशूल को धारण किया जाना त्रिदेव भगवान श्री ब्रह्रा, भगवान श्री विष्णू हरि व भगवान महेश को परिभाषित करता है।  इसे  भूत,वर्तमान और भविष्य के अलावा धरती, स्वर्ग व पाताल का सूचक भी माना गया है। त्रिशूल के  तीनों भागों के मध्य सामजस्य बनाए बगैर सृष्ट‌ि का संचालन कठ‌िन माना गया है।

 

भगवान शिव, माता दुर्गा हाथों में शोभित है त्रिशूल

त्रिशूल यानिकि तीन चोंच वाले हथियार को भगवान शिव के अलावा माता दुर्गा अपने हाथों में धारण करती हैं। डमरू वाला त्रिशूल भगवान शिव का सबसे प्रिय अस्त्र है। भगवान शिव के त्रिशूल को पवित्रता व  शुभकर्म का प्रतीक माना गया है । वहीं नवरात्रि में माता दुर्गा की प्रतिमा में त्रिशूल की विशेष तौर से पूजा की जाती है। क्योंकि त्रिशूल को माता दुर्गा का प्रिय हथियार माना गया है। क्योंकि माता दुर्गा ने  महिषासुर राक्षस का इसी रुप में संहार किया था। वहीं इसी त्रिशूल से भगवान शिव ने पुत्र गणेश का सिर अलग किया था।

सोने, चांदी, धातु से बनाए जाते हैं त्रिशूल

भगवान शिव के अलावा माता दुर्गा की प्रतिमाओं के अलावा मंदिरों के गुंबदों में भी त्रिशूल को स्थापित किए जाने की परंपरा है। देवी दुर्गा के मंदिरों में माता की प्रतिमा में त्रिशूल लकडी या बांस के डंडे पर भी लगाया जाता है। वहीं शिवालय में  सोने,  चांदी, लोहे व अन्य धातु से निर्मित त्रिशूल लगाए जाते हैं।  बिना त्रिशूल के शिवालयों को अधूरा माना जाता है।

चौरागढ़ मंदिर की पहचान बनी त्रिशूल पहाड़ी

मध्यप्रदेश में पंचमढी पर्यटन स्थल के लिए विशेष तौर से पहचान रखता है। वहीं पंचमढ़ी के पास स्थित सतपुड़ा की वादियों में स्थापित चौरागढ़ मंदिर का अपना ही विशेष महत्व है। तीन से चार किलोमीटर की चढ़ाई चढ़ कर भगवान शिव को भक्त शिव प्रतीक चिन्ह अपनी मनोकामना पूरी होने की कामना के लिए व कामना पूरी होने पर भगवान शिव को त्रिशूल अर्पित करते हैं। महा शिवरात्रि पर हर साल लाखों की तादाद में भक्त इस मंदिर मे त्रिशूल भेंट करते हैं। भक्तों की ओर से त्रिशूल भेंट करने के कारण अब यह पहाड़ छोटे बड़े विभिन्न आकारों वाले त्रिशूलों से ढक गया है।

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त्रिशूल चिह्न  उकेर कर  शिव वाहन बनाने की प्रथा कायम

भक्त अपनी मान्यता पूरी होने पर महाशिवरात्रि पर शिव के वाहन नंदी के प्रतीक समान बेलो के बच्चो को छोड़ते हैं।  इन बेलों के जंघों मे एक छोटा त्रिशूल चिह्न भी उकेरा जाता है। इस चिह्न को बनाने के लिए एक  छोटे से त्रिशूल को गर्म कर बेलो के बच्चो की जंघों में चिपकाया जाता है।  उतनी जगह जलने के बाद उस स्थान पर हमेशा के लिए त्रिशूल का चिह्न बन जाता है। इस त्रिशूल के निशान वाले बेलो और बड़ा होकर सांड बनने पर कोई भी आदमी उसे नहीं पकड़ता है।

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त्रिशूल चिह्न का हस्तरेखा विज्ञान में विशेष महत्व

हस्‍तरेखा विज्ञान में त्रिशूल चिह्न का विशेष महत्व है। इंसान की  हथेली में कुछ निशान बहुत ही शुभ माने जाते हैं। इनमें त्रिशूल के निशान का विशेष महत्व है। त्रिशूल के चिह्न को हाथ की तर्जनी ओर मध्यमा अंगुली के ठीक नीचे पाए जाने पर संबंधित इंसान की  किस्‍मत का आकलन किया जाता है। कई हाथों में त्रिशूल का चिह्न हथेली के ऊपरी या निचले भाग मे भी पाया जाता है।  मनुष्य के शरीर जहां तीन नाड़ियां मिलती हैं उसे त्रिशूल कहा जाता है।

कुमार प्रदीप

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