कुंभ पर्व पर देवी-देवता भी करते हैं ‘कल्पवास’ की इच्छा

कुंभ में है ‘कल्पवास’ का विशेष महत्त्व

‘कल्पवास’ करने से होती है मोक्ष की प्राप्ति

भारतीय संस्कृति में तीर्थ स्थान प्रयाग का विशेष महत्व है। प्रयाग में ही सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी ने सृष्टि कार्य पूरा होने पर प्रथम यज्ञ किया था। प्रयागराज गंगा-यमुना व सरस्वती नदियों के संगम पर स्थित है। इसी कारण इस स्थान को त्रिवेणी के नाम से भी जाना जाता है। इस स्थान पर नदियों के संगम के साथ-साथ कुंभ और अर्ध कुंभ के अवसर पर विभिन्न संस्कृतियों व खास तौर पर विभिन्न विचारों का संगम भी होता है। कुंभ और अर्ध कुंभ के पावन पर्व पर ‘कल्पवास’ का विशेष महत्त्व है। तीर्थराज प्रयाग में एक महीने तक यानि माघ का पूरा महीना निवास करने से पुण्य फल की प्राप्ति होती है। गंगा-यमुना व अदृश्य सरस्वती के संगम पर पूरा महीना निवास व साधना करने को ‘कल्पवास’ कहा जाता है। कल्पवास के द्वारा आत्मशुद्धि और खुद पर नियंत्रण करने का प्रयास किया जाता है। कल्पवास मुख्य रूप से माघ मास, कुंभ और अर्ध कुंभ के पावन पर्व पर किया जाता है। आधुनिक विद्वानों ने कल्पवास का अर्थ ‘कायाशोधन’ किया है जिसे कायाकल्प भी कहा जाता है।

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‘कल्पवास’ का महत्व

त्रिवेणी संगम पर अस्थायी रूप से बसने वाली इस आध्यात्मिक नगरी में तीर्थयात्रियों का उत्साह देखते ही बनता है। इस पावन नगरी में होने वाले जप, तप, यज्ञ, स्नान और संतो-महात्माओं के प्रवचन तथा अन्य गतिविधियां तीर्थ यात्रियों को रोके रखती हैं। ‘कल्पवास’ का आरम्भ हर साल सूर्य के मकर राशि में प्रवेश करने साथ ही पोष पूर्णिमा से होता है। और ‘कल्पवास’ का माघी पूर्णिमा को समापन होता है। ‘कल्पवास’ के समय में एक महीने तक कल्पवासी को ज़मीन पर सोना पड़ता है, तीन बार स्नान करना पड़ता है और एक बार ही फलाहार का सेवन करना होता है।

 

धार्मिक ग्रन्थों में भी है ‘कल्पवास’ का वर्णन

महाभारत में बताया गया है कि पूरे एक सौ साल तक बिना अन्न ग्रहण किए तपस्या करने से जो फल प्राप्त होता है वही फल केवल माघ महीने में कल्पवास करने से ही प्राप्त हो जाता है। महाभारत के एक प्रसंग में मार्कंडेय युधिष्ठिर को कल्पवास का महत्व बताते हुए कहते हैं कि प्रयाग तीर्थ पापों का नाश करने वाला है। जो व्यक्ति एक महीना इंद्रियों को वश में कर स्नान-ध्यान, पूजा-पाठ, यज्ञ करेगा उसे मोक्ष की प्राप्ति होगी।

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देवी-देवता भी करते हैं कल्पवास की इच्छा

एक महीने के कल्पवास का विशेष महत्व है। कहा जाता है कि प्रयाग में केवल तीर्थ यात्री ही कल्पवास नहीं करते बल्कि उस समय देवी-देवता भी वहीं पर मौजूद होते हैं। लोगों का मानना है कि कल्पवास करने वाले तीर्थ यात्रियों को यह देवी-देवता किसी ना किसी रूप में दर्शन भी देते हैं। यह भी मान्यता है कि देवता भी मानव जन्म पाकर प्रयागराज में कल्पवास की इच्छा रखते हैं।

‘कल्पवास’ की अवधि

कल्पवास की कम से कम अवधि एक रात्रि की है। कई श्रद्धालु जीवनभर माघ मास इस संगम को समर्पित कर देते हैं। विधान के अनुसार कल्पवास एक रात्रि, तीन रात्रि, तीन महीने, छह महीने, छह साल, बारह साल या फिर जीवनभर भी किया जा सकता है। एक मान्यता के अनुसार ‘एक कल्प’ चार युगों कलियुग, सतयुग, द्वापर और त्रेता की अवधि होती है। प्रयाग में पूरे नियमों, मर्यादा व अनुशासन के साथ पूर्ण किए गए एक ‘कल्पवास’ का फल चारों युगों में किए गए ध्यान, तप और दान से मिलने वाले पुण्य फल के समान होता है। साथ ही कल्पवास के लिए उम्र की कोई सीमा नहीं है लेकिन कल्पवास सांसारिक जिम्मेदारियां निभा चुके व सांसारिक मोह माया व बंधनों से मुक्त हो चुके व्यक्ति को ही करना चाहिए। क्योंकि सांसारिक बंधनों में बंधे व्यक्ति के लिए खुद पर नियंत्रण करना मुश्किल होता है। हालांकि कल्पवास को आरम्भ करने के बाद इसे 12 सालों तक जारी रखने की परंपरा है लेकिन इससे अधिक समय तक भी कल्पवास किया जा सकता है।

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तुलसी व शालिग्राम की स्थापना से होता है कल्पवास का आरम्भ

कल्पवास का आरम्भ पहले दिन तुलसी व भगवान शालिग्राम की पूजा व स्थापना के साथ होता है। कल्पवासी प्रयागराज में अपने निवास यानि टेंट के बाहर जौ के बीज रोपित करता है। यह बीज कल्पवास के दौरान पौधों का रूप ले लेते हैं। कल्पवास समाप्त होने पर कल्पवासी इन पौधों को अपने साथ ले जाता है और तुलसी को पावन गंगा में प्रवाहित कर दिया जाता है।

हज़ारों वर्षों से चला आ रहा है ‘कल्पवास’ का विधान

कल्पवास का विधान हज़ारों वर्षों से निरंतर चला आ रहा है। प्राचीन समय में प्रयाग ऋषि-मुनियों का मुख्य तपस्थल था। कहा जाता है कि गंगा-यमुना के आसपास का इलाका एक घना जंगल था। इस जंगल में ही  ऋषि-मुनि तप व साधना करते थे। इस समय में गृहस्थ लोगों के लिए भी ऋषि-मुनियों ने कल्पवास का विधान किया। और ऋषि-मुनियों द्वारा गृहस्थ लोगों को भी थोड़े समय के लिए शिक्षा व दीक्षा दी जाती थी। लेकिन अब आधुनिक समय में ‘कल्पवास’ के स्वरूप में भी थोड़ा परिवर्तन हुआ है। लेकिन इसके महत्व में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। अब तो युवक भी कल्पवास करने लगे हैं। विदेशी नागरिक भी भारतीय गुरुओं की देखरेख में कल्पवास करने के लिए भारत आते हैं।

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‘कल्पवास’ से इच्छा शक्ति होती है दृढ़

महीनाभर कल्पवास करने से व्यक्ति की इच्छा शक्ति दृढ होती है और विचारों में परिवर्तन आता है। क्योंकि पूरे संयम व मर्यादा से किया गया कल्पवास ही फलदायक होता है। इसके लिए यह विधान है कि प्रयाग के लिए रवाना होने से पहले भगवान गणेश का पूजन करना आवश्यक है। इसके बाद से ही मन पर काबू करना चाहिए है। प्रयाग में त्रिवेणी तट पर पहुंचकर कल्पवास की अवधि के दौरान बुरी संगत व बुरे विचारों को त्यागने का संकल्प लेना चाहिए।

धर्मेन्द्र संधू

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