ऐसा मंदिर जिसकी सीढ़ियों पर पैर रखते ही निकलते हैं संगीत के स्वर

भारतीय संस्कृति अन्य देशों की संस्कृतियों से अलग है। भारतीय संस्कृति को अन्य संस्कृतियों से अलग करती हैं, इसकी मान्यताएं, परंपराएं, विश्वास और रीति-रिवाज़। प्राचीन भारतीय मंदिर भी हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग हैं। सदियों पुराने यह मंदिर इतिहास की गाथा सुनाते हुए आज भी देखे जा सकते हैं। ऐसा ही एक प्राचीन मंदिर एरावतेश्वर मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। इस प्राचीन मंदिर का निर्माण चोल राजवंश द्वारा करवाया गया था।

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एरावतेश्वर मंदिर 

एरावतेश्वर मंदिर दक्षिण भारत के तमिलनाडु राज्य के दारासुरम में स्थित एक प्राचीन मंदिर है।  जो कुंभकोणम नामक स्थान के पास स्थित है। इसका निर्माण दक्षिण भारत के शक्तिशाली चोल राजवंश के चोल द्वितीय के शासन काल के दौरान 12वीं सदी में द्वारा करवाया गया था।

भगवान शिव को समर्पित है यह मंदिर

यह भव्य प्राचीन मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। इस मंदिर में भगवान शिव का पूजन एरावतेश्वर के नाम से किया जाता है। इसके साथ एक पौराणिक कथा जुड़ी हुई है, कहा जाता है कि इस स्थान पर देव इंद्र के एरावत नामक सफेद हाथी ने भवान शिव की आराधना की थी।  ऋषि दुर्वासा द्वारा दिए गए श्राप के कारण इंद्र के इस हाथी का रंग बदल गया था। कहते हैं कि अपना असल रंग वापिस पाने के लिए उसने शिव का पूजन किया जिसके बाद उसे अपना रंग दोबारा मिला। मंदिर के भीतरी कक्ष में ऐरावत पर इंद्र देव विराजमान हैं।

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एक और कथा के अनुसार यमराज को भी एक श्राप मिला था। इस श्राप के कारण उसका शरीर जलन से बेहाल था। इस श्राप से मुक्ति पाने के लिए यमराज ने भी इसी स्थान पर भगवान शिव की आराधना की थी। यमराज ने यहां मौजूद तालाब में स्नान किया था जिसके बाद उसकी जलन शांत हुई थी। इस लिए इस तालाब को यमतीर्थम के नाम से जाना जाता है।

मंदिर की वास्तुकला

एरावतेश्वर मंदिर का निर्माण द्रविड़ वास्तुकला शैली के अनुसार किया गया है। मंदिर की दीवारों व छतों पर की गई नक्काशी विशेष आकर्षण का केन्द्र है। मण्डपम के दक्षिणी भाग को पत्थर के एक विशाल रथ का आकार प्रदान किया गया है, जो देखने में ऐसे प्रतीत होता है कि एक पत्थरनुमा रथ घोड़ों द्वारा खींचा जा रहा हो। कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण आस्था के साथ ही मनोरंजन और नित्य-विनोद को ध्यान में रखते हुए किया गया था। मंदिर के अंदर आंगन में कई इमारतें बनी हुई हैं, इनमें से एक को बलिपीट यानि बलि देने का स्थान माना जाता है। दक्षिणी भाग में 3 सीढ़ियों का एक समूह है। इन सीढ़ियों की विशेषता है कि इन पर पैरों से प्रहार करने से विभिन्न संगीत ध्वनियां पैदा होती हैं जो अपने आप में एक रहस्य है।

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अन्य देवी-देवताओं के भी होते हैं दर्शन

हालांकि यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है लेकिन साथ ही यहां पर अन्य देवी-देवताओं के दर्शन भी होते हैं। यहां भगवान गणेश को समर्पित एक छोटा मंदिर भी बना हुआ है। एरावतेश्वर मंदिर के उत्तर में मुख्य देवता की पत्नी पेरिया नायकी अम्मन का एक अलग मंदिर भी स्थित है।

मंदिर में मौजूद हैं प्राचीन शिलालेख

इस प्राचीन मंदिर में कई शिलालेख मौजूद हैं। मंदिर के बरामदे की उत्तरी दीवार पर शिलालेखों के 108 खंड हैं, इनमें से प्रत्येक में शिवाचार्या यानि शिव को मानने वाले संतों के नाम व वर्णन के साथ ही छवियां भी बनी हुई हैं। एक शिलालेख से कुलोतुंगा चोल तृतीय द्वारा मंदिरों का नवीनीकरण कराए जाने की जानकारी भी मिलती है।

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विश्व धरोहर में है शामिल

चोल एक शक्तिशाली हिन्दू राजवंश था। चोल वंश के शासकों द्वारा दक्षिण भारत में कई भव्य मंदिरों का निर्माण करवाया गया था। चोल राजवंश द्वारा निर्मित एरावतेश्वर मंदिर की भव्यता, ऐतिहासिकता व प्राचीनता और वास्तुकला को देखते हुए यूनेस्को द्वारा इसे विश्व धरोहर भी घोषित किया गया है। यह भव्य मंदिर चोल राजाओं द्वारा निर्मित सबसे जीवंत संरचनाओं में शुमार है।

कैसे पहुंचें

एरावतेश्वर मंदिर दक्षिण भारत के तमिलनाडु राज्य के दारासुरम में कुंभकोणम नामक स्थान के पास स्थित है। दारासुरम तक रेल, सड़क व हवाई मार्ग के द्वारा आसानी से पहुंचा जा सकता है। दारासुरम, तमिलनाडु के तंजावुर ज़िले में पड़ता है। तंजावुर से दारासुरम की दूरी 35 किलोमीटर के करीब है।

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धर्मेन्द्र संधू

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