एक चांडाल के लिए किस महर्षि ने की दूसरे स्वर्ग की रचना

-कौन सशरीर स्वर्ग के द्वार पर था पहुंचा

प्रदीप शाही

वेदों, पुराणों में स्वर्ग, नर्क, धरती, पाताल का उल्लेख मिलता है। इन सभी स्थानों पर किसी न किसी का वास माना गया है। स्वर्ग लोक में देवी-देवता, धरती पर मनुष्य, पाताल में नाग जाति का साम्राज्य है। जबकि नर्क में उन आत्माओं का वास होता है। जो इस धरती पर बुरे काम करने के बाद काल का ग्रास बनते हैं। धरती पर रहने वाले मनुष्य वेदों, पुराणों में वर्णित उल्लेख को देखते हुए स्वर्ग में रहने की कामना करते हैं। कई मनुष्य तो सशरीर स्वर्ग लोक में वास करने के इच्छुक रहते हैं। जो कि विधि के विधान के विपरीत है। वहीं स्वर्ग में वास करने वाले देवी-देवता इस धरती पर अवतरित हो कर मानस जाति का उद्धार करने में सदैव तत्पर रहते हैं। परंतु एक प्रसंग ऐसा भी है कि जब सशरीर स्वर्ग में प्रवेश करने की चाहत रखने वाले राजा के लिए महर्षि विश्वामित्र ने देवराज इंद्र की इच्छा के विपरीत त्रिशंकू स्वर्ग का निर्माण कर डाला था। आखिर क्या है यह त्रिशंकू स्वर्ग। आईए जानते हैं कि महर्षि विश्वामित्र ने आखिर किस राजा की इच्छा पूरा करने के लिए त्रिशंकू स्वर्ग की रचना की थी।

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क्या है त्रिशंकू स्वर्ग ?

कलयुग में इंसान की सोच को समझना नामुमकिन होता जा रहा है। वह अपनी काल्पनिक दुनिया में रह कर बेहद खुशी महसूस कर रहा है। किसी भी तरह की परिस्थिति हो, सुख हो या दुख हो, मनुष्य की मानसिकता में बदलाव नहीं आ रहा है। जैसे उसके लिए कुछ भी नहीं हुआ हो। इस सोच में जीने को ही त्रिशंकू स्वर्ग कहा जाता है। शास्त्रानुसार किसी इंसान की अनुचित इच्छा पूरी करना त्रिशंकू स्वर्ग को दर्शाता है। त्रिशंकू स्वर्ग को भ्रम की स्थिति माना जाता है।

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क्यों महाराजा कौशिक का महर्षि वशिष्ठ से हुआ युद्ध

एक कथानुसार एक गलती के कारण महाराजा कौशिक के एक पुत्र को छोड़ कर महर्षि वशिष्ठ के हाथों सभी पुत्रों की मौत हो गई। महाराजा कौशिक इस घटना से बेहद आहत हुए। उन्होंने महर्षि वशिष्ठ से बदला लेने के लिए भगवान शिव की तपस्या करनी शुरु कर दी। भगवान शंकर से वरदान हासिल कर महाराजा कौशिक ने महर्षि वशिष्ठ से युद्ध करना शुरु कर दिया। परंतु इस युद्ध में महाराजा कौशिक को पराजय का सामना करना पड़ा। महर्षि वशिष्ठ से मिली पराजय से महाराजा कौशिक ने एक बार फिर भोले शंकर की कठोर तपस्या करने का फैसला किया। उन्होंने अन्न का त्याग कर केवल फल और फूल का सेवन कर तपस्या शुरु कर दी। एक बार फिर देवों के देव महादेव ने दर्शन देते हुए महाराजा कौशिक को ब्रह्म ज्ञान प्रदान किया। इस के बाद ही महाराजा कौशिक की महर्षि विश्वामित्र के रुप में पहचान स्थापित हुई। ब्रह्म ज्ञान हासिल होने के बाद भी महर्षि विश्वामित्र, महर्षि वशिष्ठ को अपना दुश्मन ही मानते रहे।

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क्यों महर्षि विश्वामित्र ने चांडाल सत्यव्रत के लिए की त्रिशंकू स्वर्ग की रचना

एक प्रसंग अनुसार सत्यव्रत नाम का एक दयालु राजा राज करता था। प्रजा के हितैषी राजा सत्यव्रत ने अपने कार्यकाल के दौरान कई अनुष्ठान करवाए। वृद्धावस्था आने पर राजा सत्यव्रत ने अपने बेटे हरिश्चंद्र को प्रजा का हमेशा हितैषी बनने का संकल्प दिला कर जंगल को प्रस्थान किया। राजा सत्यव्रत के मन में सशरीर स्वर्ग जाने की चाहत समाई हुई थी। इसी इच्छा को मन में लेकर राजा सत्यव्रत, महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में पहुंचे। परंतु महर्षि वशिष्ठ ने सत्यव्रत की कामना को सुन कर साफ शब्दों में पूरा करने से इंकार कर दिया। उन्होंने कहा कि कोई भी मानव स्वर्ग में सशरीर नहीं जा सकता है। राजा सत्यव्रत अपनी इस इच्छा की पूर्ति के लिए महर्षि वशिष्ठ के पुत्रों के पास पहुंचे। महर्षि वशिष्ठ के पुत्रों ने राजा सत्यव्रत की इच्छा को पूरा करने में अपने पिता की तरह ही असमर्थता जाहिर की। साथ ही उन्हें एक चांडाल बनने का श्राप भी दे डाला। महर्षि वशिष्ठ ने राजा सत्यव्रत से कहा कि कोई भी तुम्हें सशरीर स्वर्ग लोक नहीं भेज सकता है। राजा सत्यव्रत ने तब महर्षि विश्वामित्र के आश्रम में पहुंच कर अपनी इच्छा को पूरा करने की प्रार्थना की। महर्षि विश्वामित्र ने सारी बात सुन कर महर्षि वशिष्ठ को नीचा दिखाने की ठान ली। उन्होंने अपने तपोबल से राजा सत्यव्रत को स्वर्ग के द्वार तक पहुंचा दिया।

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जब देवराज इंद्र को इस सारी घटना का पता चला तो उन्होंने राजा सत्यव्रत को अपने वज्र के प्रहार से  देवलोक से भूलोक में गिराने की कोशिश की। परंतु महर्षि विश्वामित्र ने अपने तपोबल से ऐसा होने नहीं दिया। तब देवराज इंद्र ने महर्षि विश्वामित्र से प्रकृति के नियमों को न तोड़ने की प्रार्थना की। देवराज इंद्र की इस प्रार्थना के बाद महर्षि विश्वामित्र ने राजा सत्यव्रत के लिए एक अलग स्वर्ग की रचना की। जिसे त्रिशंकू स्वर्ग के नाम से पहचाना जाता है।

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