अद्भुत ! इस शहर में हिंदुओं को जाता है दफनाया, नहीं होता है अंतिम संस्कार

-वर्ष 1930 से इस कब्रिस्तान की एक मुसलमान कर रहा है देखभाल
हिंदु धर्म में सदियों से मृतक का अंतिम संस्कार करने की परंपरा है। परंतु भारत का एक शहर एेसा भी है, जहां पर हिंदुओं को कब्रिस्तान में पूर्ण रीति-रिवाजों से दफनाया जाता है। आईए आज आपको इस शहर की जानकारी देते हैं, आखिर यह शहर भारत में कहां पर स्थित है। इस शहर की सबसे खास बात यह है कि इस कब्रिस्तान में हिंदुओं व मुसलमानों की कब्रों की एक समान देखभाल का जिम्मा एक मुसलमान परिवार करता आ रहा है। शहर में हिंदुओं को दफनाने की यह प्रथा वर्ष 1930 से अनवरत जारी है।

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किस शहर में दफनाए जाते हैं हिंदुओं के पार्थिव शरीर
भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश का कानपुर शहर एक एेसा अनूठा शहर है, जहां पर हिंदुओं का अंतिम संस्कार नहीं किया जाता है। यहां पर हिंदुओं के पार्थिव शरीर को पूरी रीति-रिवाज से कब्रिस्तान में दफनाया जाता है। यह परंपरा वर्ष 1930 से यानि कि 89 साल पहले शुरु हुए थी। या यूं कहें कि कानपुर में हिंदुओं का प्रथम कब्रिस्तान बना। उस समय शहर में हिंदुओं का केवल एक कब्रिस्तान था। अब इन कब्रिस्तान की संख्या एक से बढ़ कर सात हो गई है। इस कब्रिस्तान की शुरुआत अंग्रेजों ने की थी। यह कब्रिस्तान कानपुर के कोकाकोला चौराहा रेलवे क्रॉसिंग के बगल में है। इस कब्रिस्तान को अच्युतानंद महाराज कब्रिस्तान के नाम से जाना जाता है।

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आखिर क्यों बनाना पड़ा हिंदुओं के लिए कब्रिस्तान
कहा जाता है कि फतेहपुर के सौरिख गांव के रहने वाले स्वामी अच्युतानंद दलित वर्ग से संबंधित थे। एक बार साल 1930 में स्वामी जी एक दलित वर्ग के बच्चे के अंतिम संस्कार में शामिल होने भैरव घाट गए। वहां अंतिम संस्कार के समय पण्डे मृतक के परिवार बड़ी दक्षिणा की मांग रहे थे। इस घटना को लेकर स्वामी अच्युतानंद की पण्डों से बहस हो गई। इस पर पण्डों ने उस बच्चे का अंतिम संस्कार करने से मना कर दिया। पण्डों की बदसलूकी से नाराज अच्युतानंद महाराज ने उस दलित बच्चे का अंतिम संस्कार खुद विधि-विधान के साथ पूरा किया। उन्होंने बच्चे के पार्थिव शरीर को गंगा में प्रवाहित कर दिया।
स्वामी अच्युतानंद के कदम यहीं नहीं ठहरे। उन्होंने दलित वर्ग के बच्चों के लिए शहर में कब्रिस्तान बनाने की ठान ली। इसके लिए उन्हें जमीन की जरूरत थी। उन्होंने अपनी बात अंग्रेज अफसरों के सामने रखी। अंग्रेजों ने बिना किसी हिचक के कब्रगाह के लिए जमीन दे दी। तभी से इस कब्रिस्तान में हिंदुओं की परंपरा शुरु हो गई। 1932 में स्वामी अच्युतानंद जी की मृत्यु के बाद उनके पार्थिव शारीर को भी इसी कब्रिस्तान में दफनाया गया। इस हिंदू कब्रिस्तान में दलितों के बच्चों को कब्रों में दफनाने की परंपरा शुरू हुई। परंतु अब यहां पर हिंदुओं की सभी जाति के शव दफनाए जाते हैं। अब यहां हर उम्र और जाति के शवों को दफनाया जाता है।

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कब्रिस्तान की देखभाल कर रहा एक मुसलमान परिवार
1930 में बनाए गए इस कब्रिस्तान की देखभाल पीर मोहम्मद शाह का परिवार कर रहा है। पीर मोहम्मद शाह अनुसार वह जब 12 साल का था, तब से अपने पिता जी के साथ शवों को दफनाने का काम कर रहा हूं। कब्रिस्तान की सभी कब्रों की देखरख का जिम्मा भी अब मेरे उपर है। यहां सिर्फ हिंदुओं के शव ही नहीं मुसलमानों के शवों को भी दफनाया जाता है। यहां पर हिंदुओं के शवों को दफनाने के समय पंडित नहीं आते हैं। अगर किसी कब्र की दो से तीन तक कोई देखरेख के लिए नहीं आता। तो उस कब्र को खोद कर वहां नई कब्र बना दी जाती है। पहली मिट्टी को मृतक के परिजनों को दे दी जाती है। पुरानी कब्र से निकली अस्थियों को कब्रिस्तान में ही एक गढ्ढा खोदकर दबा दिया जाता है। दफनाने के बाद डेथ सर्टिफिकेट बनवाने के लिए रसीद दी जाती है। यहां अंतिम संस्कार के समय कोई पूजापाठ नहीं किया जाता है। केवल अगरबत्ती ही जलाई जाती है। यहां पर शव को दफनाने के कुल 500 रुपए लगते हैं।

प्रदीप शाही

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