बिना कुछ खर्च किए, ऐसा क्या करें जिससे पितरों को आसानी से मिले मुक्ति

– वंदना

हिन्दू धर्म में मृत्यु के बाद श्राद्ध करना पुराणों के अनुसार बेहद जरूरी माना गया है। मान्यतानुसार अगर किसी मनुष्य का विधिपूर्वक श्राद्ध और तर्पण ना किया जाए तो उसे इस लोक से मुक्ति नहीं मिलती और वह भूत, पिशाच के रूप में इस संसार में ही रह जाता है। श्राद्ध में तर्पण, पिंडदान और धूप देने से आत्मा की तृप्ति होती है। तृप्त आत्माएं प्रेत नहीं बनतीं है | श्राद्ध करने से श्रेष्ठ संतान, आयु, आरोग्य, अतुल ऐश्वर्य और इच्छित वस्तुओं की प्राप्ति होती है| श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करने वालों की बुद्धि, पुष्टि, स्मरणशक्ति, पुत्र-पौत्रादि एवं ऐश्वर्य आदि में वृद्धि होती है ।

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पितृ पक्ष का महत्त्व
ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार देवताओं को प्रसन्न करने से पहले मनुष्य को अपने पितरों यानि पूर्वजों को प्रसन्न करना चाहिए। हिन्दू ज्योतिष शास्त्र के अनुसार पितृ दोष सबसे जटिल कुंडली दोषों में से एक माना जाता है। पितरों की शांति के लिए श्राद्ध किये जाते है| हर वर्ष भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक के समय को पितृ पक्ष श्राद्ध होते हैं। कहा यह भी जाता है कि श्राद्ध के दौरान कुछ समय के लिए यमराज पितरों को आजाद कर देते हैं ताकि वह अपने परिजनों से श्राद्ध ग्रहण कर सकें। 

 

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श्राद्ध का पौराणिक महत्व
ब्रह्म पुराण के अनुसार जो भी वस्तु उचित काल या स्थान पर पितरों के नाम पर उचित विधि द्वारा ब्राह्मणों को श्रद्धापूर्वक दान दिया जाए वह श्राद्ध कहलाता है। श्राद्ध के माध्यम से पितरों कि ना पूरी हुई इच्छाओं की तृप्ति के लिए दान और भोजन पहुंचाया जाता है। पिण्ड रूप में पितरों को दिया गया भोजन श्राद्ध का अहम हिस्सा माना जाता है।

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श्राद्ध करना क्यों जरूरी ?
प्राचीन लोक मान्यताओं के अनुसार अगर पितर रुष्ट हो जाए तो मनुष्य को जीवन में कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है। पितरों की अशांति के कारण धन हानि और संतान पक्ष से समस्याओं का भी सामना करना पड़ सकता है। संतान-हीनता के मामलों में ज्योतिषी पितृ दोष को अवश्य देखते हैं। ऐसे लोगों को पितृ पक्ष के दौरान श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। 

किस तारीख को करना चाहिए श्राद्ध?
सरल शब्दों में कहा जाए तो श्राद्ध दिवंगत परिजनों को उनकी मृत्यु की तिथि पर श्रद्धापूर्वक याद किया जाना चाहिए | अगर किसी परिजन की मृत्यु प्रतिपदा को हुई हो तो उनका श्राद्ध प्रतिपदा के दिन ही किया जाता है। इसी प्रकार अन्य दिनों में भी ऐसा ही किया जाता है।

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क्या दिया जाता है श्राद्ध में?
अक्सर माना जाता है कि श्राद्धों में दिया गया दान सबसे पवित्र माना जाता है | श्राद्ध में दान करने के लिए तिल, चावल, जौ आदि को अधिक महत्त्व दिया जाता है। साथ ही पुराणों में इस बात का भी जिक्र है कि श्राद्ध का अधिकार केवल योग्य ब्राह्मणों को है। श्राद्ध में तिल और कुशा का सर्वाधिक महत्त्व होता है। श्राद्ध में पितरों को अर्पित किए जाने वाले भोज्य पदार्थ को पिंडी रूप में अर्पित करना चाहिए। श्राद्ध का अधिकार पुत्र, भाई, दोहते, पौत्र, प्रपौत्र समेत महिलाओं को भी होता है। घर का कोई भी सदस्य श्राद्ध कर सकता है |

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श्राद्ध में कौओं का महत्त्व
कौए को पितरों का रूप माना जाता है। मान्यता है कि श्राद्ध ग्रहण करने के लिए हमारे पितर कौए का रूप धारण कर नियत तिथि पर दोपहर के समय हमारे घर आते हैं। अगर उन्हें श्राद्ध नहीं मिलता है तो वह रुष्ट हो जाते हैं। इस कारण श्राद्ध का प्रथम अंश कौओं को दिया जाता है।

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श्राद्ध से जुडी कुछ विशेष मान्यताएं :-

श्राद्ध से जुडी कुछ विशेष मान्यताएं भी समाज में प्रचलित है जैसे कि पिता का श्राद्ध अष्टमी के दिन और माता का नवमी के दिन किया जाता है।

जिन परिजनों की अकाल मृत्यु हुई हो यानि कि किसी दुर्घटना में या किसी ने आत्महत्या की हो तो उनका श्राद्ध चतुर्दशी के दिन किया जाता है।

ऐसे ही साधु और संन्यासियों का श्राद्ध द्वाद्वशी के दिन किया जाता है।

जिन पितरों के मरने की तिथि याद नहीं है, उन सभी का श्राद्ध अमावस्या के दिन किया जाता है। इस दिन को सर्व पितृ श्राद्ध कहा जाता है।

घर में किए गए श्राद्ध का पुण्य तीर्थ-स्थान पर किए गए श्राद्ध से कई गुना अधिक मिलता है। 

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हिन्दू धर्म में गाय और श्राद्ध दोनों को विशेष माना गया है | यदि किसी के पास श्राद्ध करने जितने पैसे नहीं हो और वह अगर गाय को भी श्रद्धापूर्वक चारा खिला दे तो भी पितर खुश हो जाते है और श्राद्ध के समान फल मिलता है | यदि यह भी संभव ना हो तो किसी एकांत स्थान पर दोपहर के समय सूर्य की ओर दोनों हाथ उठाकर अपने पूर्वजों और सूर्य देव से प्रार्थना करनी चाहिए कि हे भगवान , मैंने अपने हाथ आपके सामने फैला दिए हैं, मैं अपने पितरों की मुक्ति के लिए आपसे प्रार्थना करता हूं, मेरे पितर मेरी श्रद्धा भक्ति से संतुष्ट हो। इस तरह प्रार्थना करने पर मनुष्य पितृ ऋण से तो मुक्त से होता है साथ ही पितरों की आत्मा भी संतुष्ट हो जाती है और मुक्ति के मार्ग पर चल पड़ती है|

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