देवी को प्रसन्न करने के लिए भक्त खेलते हैं अनूठा खेल

धर्मेन्द्र संधू

प्राचीन भारतीय मंदिर अपनी मान्यताओं, परंपराओं व चमत्कारों के कारण पूरे विश्व में प्रसिद्ध हैं। इन मंदिरों से जुड़ी कथाएं आज भी शोध करने वालों को अपनी ओर खींचती हैं। यह मंदिर प्राचीन युगों की न जाने कितनी कहानियों को समेटे हुए हैं। एक ऐसा ही प्राचीन मंदिर पहाड़ी राज्य उत्तराखंड में स्थित है, जिसका संबंध पांडवों के साथ जुड़ा हुआ है।

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वाराही देवी मंदिर

प्राचीन ‘वाराही देवी मंदिर’ उत्तराखण्ड राज्य में स्थित है। नैनीताल के पाटी विकासखंड के देवीधुरा नामक स्थान पर मां वाराही का यह प्राचीन मंदिर है। लोहाघाट नगर से 60 किलोमीटर के करीब दूरी पर स्थित इस मंदिर को देवीधुरा भी कहा जाता है। समुद्र तल से 2000 फीट ऊंचाई पर स्थित इस पावन स्थान को 51 शक्ति पीठों में से एक माना जाता है।

मंदिर से जुड़ी कथा

लोगों का मानना है कि प्राचीन समय में रूहेलों ने कत्यूरी शासकों पर हमला किया था। अपनी जान बचाने के लिए कत्यूरी राजाओं को मां वाराही की मूर्ति के साथ एक गुफा में शरण लेनी पड़ी थी। घने जंगलों में स्थित इसी गुफा में ही उन्होंने मां की मूर्ति को स्थापित कर दिया था। पूजा करने व मन्नतें मांगने पर मां उनकी सभी मनोकामनाएं पूरी करती थी। इसके बाद अन्य लोगों को इस स्थान के बारे में पता लगने लगा तो वह भी बड़ी संख्या में मां के दर्शनों के लिए आने लगे। धीरे-धीरे इस स्थान की महिमा बढ़ती चली गई और इसके आस पास कई गांव भी बस गए।

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मां को प्रसन्न करने का अनूठा तरीका

इस प्राचीन मंदिर में मां वाराही देवी को अनूठे तरीके से खुश करने की परंपरा है। इसमें लोग एक दूसरे पर पत्थरों की बरसात करते हैं। रक्षा बंधन के दिन इस खूनी खेल का आयोजन होता है। इस परंपरा को स्थानीय भाषा में ‘बग्वाल’ यानि पत्थरमार युद्ध कहा जाता है। इस प्रथा के साथ भी एक कथा जुड़ी है। कथा के अनुसार इस स्थान पर चन्द राजाओं के शासन के दौरान चम्पा देवी और ललत जिह्वा महाकाली की मूर्ति स्थापित थी। ललत जिह्वा महाकाली यानि लाल जीभ वाली महाकाली को नर बलि देने की प्रथा थी। इसी के चलते एक दिन एक बुजुर्ग महिला के इकलौते पोते को नर बलि के लिए लेजाया जाना था। इस पर बुजुर्ग महिला ने माता से अपने पोते की रक्षा करने के लिए प्रार्थना की। कहते हैं कि इस पर माता ने कहा एक व्यक्ति के खून के बराबर ही बलि के स्थान पर उन्हें खून चढ़ाया जाए तो वह प्रसन्न हो जाएंगी। उस समय से ही इस खूनी खेल को खेलने की प्रथा चली आ रही है।

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पत्थर युद्ध पर लगा दी थी सरकार ने रोक

पत्थरबाजी के इस खूनी खेल में राजपूतों के चार खेमें हिस्सा लेते हैं। जिनमें गहड़वाल, चम्याल, वालिक और लमगड़िया खेमें प्रमुख हैं। इन्हीं खेमों में से हर साल एक व्यक्ति की बलि देने की प्रथा थी। मां वाराही की पूजा-अर्चना करने के बाद चारों खेमें एक दूसरे पर पत्थरों की बारिश शुरू कर देते हैं। इस दौरान लोग पत्थरों से बचने के लिए बांस से बनी ढालों का प्रयोग करते हैं। इस खूनी खेल पर सरकार द्वारा रोक लगा दी गई थी। रोक लगने के बाद अब पत्थरों के स्थान पर फूलों व फलों का इस्तेमाल किया जाता है। कहा जाता है कि फलों व फूलों के साथ एक दूसरे पर हमला करने के बावजूद भी लोग घायल होते हैं और खून भी निकलता है।

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महाभारत काल से जुड़ा है मंदिर का इतिहास

इस मंदिर के साथ पांडवों का संबंध भी जोड़ा जाता है। कहा जाता है कि महाभारत काल में पांडव इस स्थान पर आए थे। इस दौरान भीम ने पहाड़ी पर कुछ शिलाएं फेंकी थीं। इन शिलाओं में से दो शिलाएं आज भी इस मंदिर के नजदीक देखी जा सकती हैं। एक शिला को राम शिला कहा जाता है व एक शिला पर हाथों के निशान भी देखने को मिलते हैं। इस स्थान पर मौजूद ‘पच्चीसी’ जुए के निशान महाभारत काल की घटनाओं को प्रमाणित करते हैं। कहा जाता है कि इसी स्थान पर पांडवों ने जूआ खेला था।

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