‘छत्तीसगढ़ का खजुराहो’है… प्राचीन ‘भोरमदेव मंदिर’

भारतीय संस्कृति अन्य देशों की संस्कृतियों से अलग है। इसका मुख्य कारण भारत के रीति रिवाज़, रहन-सहन और खान-पान है। लेकिन कुछ ऐसी चीज़ें भी हैं जो भारतीय संस्कृति को अन्य संस्कृतियों से भिन्न करती हैं वह हैं भारत की प्राचीन इमारतें मंदिर। भारत के प्राचीन मंदिर आज भी देश-विदेश के लोगों यानि पर्यटकों को अपनी ओर खींचते हैं। यह मंदिर आज भी भारतीय कला वास्तु कला के जीते जागते प्रमाण हैं। आज हम आपको एक ऐसे ही भोरमदेव मंदिर के नाम से प्रसिद्ध प्राचीन मंदिर के बारे में जानकारी देंगें जो भारतीय वास्तु कला का बेजोड़ खूबसूरत नमूना है।

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भोरमदेव मंदिर

प्राचीन भोरमदेव मंदिर छत्तीसगढ़ राज्य में स्थित है। यह मंदिर छत्तीसगढ आने वाले लोगों के लिए मुख्य आकर्षण का केंद्र है, जो भारतीय संस्कृति, वास्तु कला और सुंदरता का बेहतरीन नमूना है। भोरमदेव मंदिर की तुलना मध्य प्रदेश राज्य में स्थित खजुराहो और ओडिशा में स्थित कोणार्क मंदिर से की जाती है। प्राचीन भोरमदेव मंदिर छत्तीसगढ़ राज्य के कवर्धा जिले से 18 किलोमीटर दूर सतपुड़ा की पहाड़ियों में स्थित है। 

भगवान शिव को समर्पित है यह मंदिर

कहते हैं कि भोरमदेव मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। भोरमदेव के बारे में मान्यता है कि भोरमदेव भगवान शिव का ही एक रूप हैं। भोरमदेव गोंड समुदाय के पूजनीय देव थे। लेकिन इस मंदिर में वैष्णव, बौद्ध और जैन प्रतिमाएं भी मौजूद हैं। इस मंदिर का निर्माण नागवंशी शासक ने करवाया था जो भगवान शिव के परम भक्त थे। इसीलिए यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित माना जाता है। इस प्राचीन मंदिर में भगवान शिव के शिवलिंग रूप में दर्शन होते हैं। मुख्य मंदिर दो भागों में बंटा हुआ है। मंदिर के मुख्य भाग यानि मुख्य मंडप में शिवलिंग स्थापित है। इस भाग में एक ऊँचा मंच बना हुआ है। इसी मंच पर भगवान शिव के पूर्व मुखी शिवलिंग के रूप में दर्शन होते हैं। इसके अलावा मंदिर में भगवान विष्णु और उनके अवतारों नरसिंह वामन के साथ ही भगवान शिव के नटराज रूप, श्री कृष्ण भगवान गणेश के दर्शन भी होते हैं। मंदिर में काल भैरव और सूर्य देव की मूर्तियां भी स्थापित हैं।

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मंदिर का निर्माण काल

इस मंदिर का निर्माण काल 11 शताब्दी के आसपास का माना जाता है। प्राचीन समय में भोरमदेव मंदिर के आसपास का इलाका नागवंशी शासकों की राजधानी रहा है। माना जाता है कि इन शासकों ने 9वीं शताब्दी से लेकर 14वीं शताब्दी तक इस स्थान पर शासन किया। इसलिए इसी काल के दौरान ही 11वीं शताब्दी के आसपास नागवंशी शासकों ने इस मंदिर का निर्माण कार्य करवाया होगा। कुछ इतिहासकारों के अनुसार नागवंश के छठे शासक गोपाल देव या लक्ष्मण देव नामक राजा ने इस मंदिर का निर्माण करवाया था। कुछ का मानना है कि नाग वंश के राजा रामचन्द्र के जीवनकाल के समय ही इस मंदिर का निमार्ण हुआ था। 

कला का बेजोड़ नमूना

छत्तीसगढ़ में स्थित यह मंदिर कला का बेजोड़ नमूना है और साथ ही भारतीय वास्तु कला का उत्कृष्ट उदाहरण भी है। यह मंदिर देखने में खजुराहो, अजंता-एलोरा और कोणार्क मंदिर जैसा लगता है। इसीलिए इसे छत्तीसगढ़ का खजुराहों भी कहा जाता है। मंदिर में बाहर की ओर कामसूत्र पर आधारित संख्या में 54 के करीब मूर्तियाँ बनी हुई हैं।यह कामुक मुद्राओं में बनी हुईं मूर्तियां हर किसी को पहली ही नजर में अपनी ओर आकर्षित करती हैं। इस मंदिर के आधार पर इस मंदिर का निर्माण करवाने वाले नागवंशी शासकों को खजुराहो के शासकों का समकालीन कहा जाता है। चाहे यह मूर्तियां देखने में कामूक हैं लेकिन कुशल कारीगरों द्वारा बनाई गई यह मूर्तियां उस काल के सम्पूर्ण जीवन को प्रस्तुत करती हैं। इस क्षेत्र की खुदाई के दौरान प्राप्त हुए स्तंभ, शिलालेख और विभिन्न देवी देवताओं की मूर्तियां भी इस मंदिर में संभालकर रखी हुई हैं।

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प्राचीन संस्कृति को दर्शाता मंदिर

मंदिर में बनी हुई मूर्तियां उस काल की संस्कृति ओर लोगों के जीवन को प्रस्तुत करती हैं। इस मंदिर में बनी हुई मूर्तियों में भक्ति में लीन, नाचते-गाते ,काम-क्रीड़ा में व्यस्त लोग दिखाई देते हैं जो एक खुशहाल जीवन का प्रतीक हैं। नाचते-गाते लोगों की मूर्तियों को देखकर कहा जा सकता है कि 11-12वीं शताब्दी में भी इस क्षेत्र के लोगों का नृत्यकला से विशेष लगाव था।

भोरमदेव महोत्सव

भोरमदेव मंदिर में हर साल भोरमदेव महोत्सव मनाया जाता है। भोरमदेव महोत्सव पहले स्थानीय प्रशासन द्वारा केवल एक दिन ही मनाया जाता था। लेकिन अब राज्य सरकार द्वारा यह उत्सव 3-4 दिन तक मनाया जाता है। भोरमदेव महोत्सव मार्च के अंतिम सप्ताह या अप्रैल के प्रथम सप्ताह में आयोजित किया जाता है। यह भोरमदेव महोत्सव देश के सुप्रसिद्ध कलाकारों को मंच प्रदान करता है। इसमें देश के कोने-कोने से कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन करने के लिए आते हैं।

धर्मेन्द्र संधू

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